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पञ्चास्तिकाय परिशीलन अन्त में आचार्य कहते हैं कि ह्न वास्तव में यदि जीव किसी भी प्रकार सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगट करके, परसमय को छोड़कर स्वसमय को ग्रहण करता है तो कर्मबंध से अवश्य छूटता है; इसलिए वास्तव में ऐसा निश्चित होता है कि ह्र जीव का स्वभाव में एकरूप होना मोक्षमार्ग है।" इसी भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा ) संसारी जीवौंकै ग्यान-दृग-गुन जो पै तौ पै,
मोहिनी अनादिवस राग-दोष वसता। तातें नानारूप भाव गुन-परजायविषै,
परसमैरूप होड़ पररूप लसता ।। सोई मोह झारि एक सुद्ध उपयोग धारि,
कालजोग पाय आपविषै आप धसता। सुद्ध गुन-परजैमैं स्वसमय एकाकी है, सोई मोखमारगमैं कर्मबंध नसता।।१९३ ।।
(दोहा) काल-लब्धि-बल पायकैं, सम्यक् जोति-उद्योत ।
पर समयाश्रित पर लसै, स्व-समय निजपद होत।।१९४ ।। कवि कहते हैं कि - संसारी जीवों के यद्यपि ज्ञान-दर्शन गुण हैं तथापि अनादि से मोह के वश होकर राग-द्वेष करते हैं इसकारम परसमय होकर नाना प्रकार से राग-द्वेष करता है। यदि जीव मोह को त्यागकर, शुद्धोपयोग धारण कर, काललब्धि आने पर स्वयं में रमण करें तो शुद्ध गुण-पर्याय रूप होकर एकाकी स्व-समय में स्थिर होकर मोक्षमार्ग में आ जाता है तथा कर्मबंध का नाश कर देता है। आगे कहते हैं कि - काललब्धि आने पर सम्यग्ज्ञान ज्योति के प्रकाश में पर-समय को त्याग कर स्वसमय में आकर निजपद को प्राप्त कर लेता है।
अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) ___ गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “यह आत्मा निश्चय से अपने शुद्ध आत्मिक भावों में निश्चल है। जिसतरह लैंडीपीपल में अव्यक्तरूप से चौसठपुटी चरपराहट है, किन्तु वह पीसने पर प्रगट होती है, उसीतरह आत्मा में अन्तर शक्ति रूप में सुख-शान्ति भरी हुई है; किन्तु पर की ओर झुकाव होने से उसकी शान्ति बाहर व्यक्तरूप से दिखाई नहीं देती। गुण-गुणी अभेद हैं। सब आत्मायें अपने स्वभाव में निश्चल हैं तथा ज्ञानादि गुणों से भरपूर हैं; किन्तु अनादि से जीव को अज्ञान की वासना है। अतः ऐसा मानता है कि दान देने से धर्म होता है, जबकि दान द्वारा धन की तृष्णा घटाने से पुण्य होता है। धर्म नहीं।
पुण्य-पाप दोनों विकार हैं। क्रोध-मान-माया लोभ का परिणाम १०४ डिग्री का बुखार जैसा है तथा दया-दानादि का शुभभाव ९९ डिग्री जैसा है। परन्तु दोनों रोग हैं। ९९ डिग्री का बुखार अधिक दिन रहे तो क्षयरोग हो जाता है। पुण्य-पाप रहित शुद्ध स्वभाव में स्थिर होना चारित्र है। ___ “मैं ज्ञायक हूँ, विकार मेरा स्वरूप नहीं है" ह्र ऐसा न मानकर अनादि से पर में उपयोग होने से पुण्य-पाप में लीन हो रहा है। तथा अभिमान करता है कि 'मैं पर में फेर-फार कर सकता हूँ।' उससे कहते हैं कि अपनी श्रद्धा का विषय पलट और ऐसा मान कि 'मैं पर का कुछ भी नहीं कर सकता हूँ।"
सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि - आत्मा का स्वभाव ज्ञानदर्शन है, उस स्वभाव में रमणता ही चारित्र है। संसारी जीव सम्यक् पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शनज्ञान सहित आत्मिक स्वरूप में जो आचरण करते हैं, वह चारित्र है। ऐसे चारित्र का पालन करने से जीव मुक्ति प्राप्त करता है।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२०, दि. २९-५-५२, पृष्ठ-१७६८