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गाथा - १५६ विगत गाथा में स्व समय की मुख्यता से स्व समय, पर-समय की चर्चा की गई है। प्रस्तुत गाथा में पर-चारित्र में प्रवर्तन करने वाले जीवों की मुख्यता की बात करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जो परदव्वम्हि सुहं असुहं रागेण कुणदि जदि भावं। सो सगचरित्तभट्ठो परचरियचरो हवदि जीवो।।१५६।।
(हरिगीत) जो राग से पर द्रव्य में करते शुभाशुभ भाव हैं। पर-चरित में लवलीन वे स्व-चरित्र से परिभ्रष्ट है।।१५६||
जो जीव राग से पर द्रव्य में शुभ या अशुभ भाव में प्रवर्तन करते हैं, वे जीव स्वचारित्र से भ्रष्ट होकर पर चारित्र का आचरण करने वाले हैं।
आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी अपनी टीका में कहते हैं कि ह्न “जो जीव वास्तव में मोहनीय कर्म के उदय का अनुसरण करनेवाली परिणति के वश होने के कारण राग रंजित उपयोग वाला वर्तता हुआ, पर द्रव्य में शुभ या अशुभ भाव को धारण करता है, वह जीव स्व-चारित्र से भ्रष्ट पर-चारित्र का आचरण करने वाला कहा जाता है; क्योंकि वास्तव में स्वद्रव्य में शुद्ध-उपयोगरूप परिणति स्वचारित्र है और परद्रव्य में विकारयुक्त हुई परिणति परचारित्र हैं।" कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा) मोहनीय-करम कै उदैवस वरती है,
जीव राज्यमान तातै पर मैं मगनता । सुभ औ असुभ भाव दौनौ का करैया लसै,
स्वचारित्र भ्रष्ट परचारित्र लगनता ।।
अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) निज द्रव्य विषै सुद्ध उपयोग निज सोई,
निज चरित नाम ताकै अपनी जगनता। परद्रव्य विषै राग रंजित है परचारी, मिथ्या रूढ़िकारी जौ पै धारी है नगनता।।१९७ ।।
(दोहा) स्व चरित अस पर चरित की, निज लख जानी बात।
तिन आतम आतम लख्या, दरसन-मोह विलात।।१९८।। कवि कहते हैं कि - मोहनीय कर्म के उदयवश जीव पर में लीन होता है। इस कारण पर में मग्न होता है। स्व-चारित्र से भ्रष्ट एवं पर-चारित्र में मग्न होकर शुभाशुभ भाव करता है। निजद्रव्य में लीनता से शुद्ध उपयोग होता है, परन्तु अज्ञानी परद्रव्य में रंजायमान होकर उठता है। वह भले बाहर में नग्न हो तो भी मिथ्या रूढ़िवादी है। जब स्व-चारित्र व पर-चारित्र का यर्थाथ ज्ञान होता है। अपना स्वरूप जानने से मोह नाश होता है।
इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न "अविद्या रूपी डाकन ने अज्ञानी जीवों को ग्रसित कर लिया है। जो जीव चैतन्य स्वभाव को छोड़कर राग में एकाकार हो जाते हैं, उन्हें मोहरूपी चुड़ेल ग्रस लेती है। जो जीव दया दानादि भावों से धर्म का लाभ होना मानते हैं, उन्हें आचार्य नशा में गाफिल हुआ जैसा कहते हैं। व्रत, संयम, भक्तिभाव तथा पाँच इन्द्रियों के विषय-कषाय के भाव असत् भाव हैं। जो उन्हें करते हैं, वे जीव आत्मिक शुद्ध आचरण से रहित हैं तथा पर समय के आचरण वाले हैं।
वस्तुस्वरूप की दृष्टि बिना श्रद्धा एवं ज्ञान बिना जो व्रत-तप करते हैं, वे चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण किया करते हैं।"
यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि ह्न जो अपने शुद्ध आत्मा के आचरण को भूलकर व्रत, तप तथा विषय-कषाय आदि का आचरण करते हैं, वे जीव आत्मिक शुद्ध आचरण से रहित हैं। वे पर-समय के आचरण वाले हैं, उन्हें शुद्धि नहीं होती। इसप्रकार इस गाथा में परचारित्ररूप पर-समय का स्वरूप कहा। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२०, दि. २९-५-५२, पृष्ठ-१७८८
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