Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 237
________________ गाथा - १५५ ४५६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन दिव्यध्वनि में आया है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शन एकरूप है। उस ज्ञान-दर्शन के स्वभाव में स्थिर रहना चारित्र है। विकार तो एक समय मात्र पर्याय में होता है, वह आत्मा त्रिकाली स्वभाव नहीं है। 'अरूपी आत्मा ज्ञाता-दृष्टा है' ह्र ऐसी दृष्टि होना तथा ऐसा ही ज्ञान होना सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान है तथा उसी में स्थिर होना सम्यक्चारित्र है। पाँच महाव्रत के परिणाम, २८ मूलगुण पालने के परिणाम चारित्र धारण करने की वृत्ति भूमिकासार होती अवश्य है; परन्तु ये शुभभाव हैं, ये राग हैं, वीतराग भावरूप सम्यक्चारित्र नहीं है। जैसा वस्तु का स्वभाव है, वैसा ही सर्वज्ञ ने देखा है, वही उनकी दिव्यध्वनि में आया है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शनमय एकरूप है। उस ज्ञान-दर्शन के स्वभाव में स्थिर रहना चारित्र है। विकार तो एक समय मात्र पर्याय में होता है, वह आत्मा त्रिकाली स्वभाव नहीं है। 'अरूपी आत्मा ज्ञाता-दृष्टा है' ह्र ऐसी दृष्टि होना तथा ऐसा ही ज्ञान होना सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान है तथा उसी में स्थिर होना सम्यक्चारित्र है। पाँच महाव्रत के परिणाम, २८ मूलगुण पालने के परिणाम चारित्र धारण करने की वृत्ति भूमिकानुसार होती अवश्य है; परन्तु ये शुभभाव हैं, ये राग हैं, वीतराग भाव रूप सम्यक्चारित्र नहीं है।" इसप्रकार इस गाथा द्वारा जीव का स्वभाव अप्रतिहत ज्ञान-दर्शनयुक्त बताया है तथा उसे जीव से अनन्यमय कहा है और जीव स्वभाव में नियत चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है। संसारी जीवों की अपेक्षा उस चारित्र के दो भेद हैं - (१) स्वचारित्र (२) परचारित्र । उसमें स्वभाव अवस्थित चारित्र व वस्तुतः परचारित्र से भिन्न होने के कारण अनिन्दित हैं। यही साक्षात् मोक्षमार्ग है। विगत गाथा में मोक्ष के स्वरूप का कथन किया गया है। अब प्रस्तुत गाथा में मोक्षमार्ग के संदर्भ में स्व समय-परसमय का स्वरूप कहते है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओध परसमओ। जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो।।१५५।। (हरिगीत) स्व समय स्वयं से नियत है पर भाव अनियत पर समय। चेतन रहे जब स्वयं में तब कर्मबंधन पर विजय ॥१५५|| जीव द्रव्य स्वभाव से नियत (एकरूप) होने पर भी यदि अनियत (अनेकरूप) गुणपर्यायवाला हो तो 'परसमय' है। यदि वह नियत गुणपर्याय से परिणत होकर स्वयं को स्वसमय रूप करता है तो कर्मबन्ध से छूटता है। ___ आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव टीका में कहते हैं कि ह्र स्वसमय के ग्रहण और परसमय के त्यागपूर्वक कर्मक्षय होता है। इस गाथा में ऐसे प्रतिपादन द्वारा ऐसा दर्शाया है कि ह "जीव स्वभाव में नियत चारित्र मोक्षमार्ग है।” संसारी जीव द्रव्य अपेक्षा ज्ञान-दर्शन में स्थित (ज्ञानदर्शन वाले) होने पर भी जब अनादि मोहनीय के उदय का अनुसरण करने के कारण अशुद्ध उपयोग वाला होता है तब भावों की अनेकरूपता ग्रहण होने के कारण अनियत (अनिश्चित) के उदय का अनुसरण करनेवाली परिणति को छोड़कर अत्यन्त शुद्ध उपयोग वाला होता है, तब भाव की एकरूपता ग्रहण होने से उसे जो एकरूप (नियत) गुणपर्यायपना होता है, वह स्वसमय-स्वचारित्र है। (237) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २१८, दि. २९-४-५२, पृष्ठ-१७६४

Loading...

Page Navigation
1 ... 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264