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पञ्चास्तिकाय परिशीलन तातें राग-दोष-मोह अंतरंग कारन है,
निहचै सौ बंध हेतु इनही कौं ठानना। इनकै अभाव सेती मोख का स्वभाव सधै,
काललब्धि आये सेती इनका पिछानना।।१६३॥ यहाँ कवि कहते हैं कि मिथ्यात्व आदि पुराने द्रव्यकर्म नवीन द्रव्य कर्म बंध में कारण होते हैं, इनके निमित्त से जीव में मोह-राग-द्वेष होते हैं। रागादि के बिना कर्म बंध नहीं होते, इसकारण राग-द्वेष-मोह ही बंध के अन्तरंग कारण कहे गये हैं, इनके अभाव से मोक्ष की साधना होती है, काललब्धि आने पर इन सबकी पहचान स्वतः हो जाती है।"
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्न “पुराने द्रव्यकर्म (द्रव्य मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग) ये चारों द्रव्यकर्म नवीन आठ प्रकार के कर्मबंध में निमित्त कारण होते हैं। चारों द्रव्य प्रत्ययों के निमित्त कारण से जीव के मोह राग-द्वेषादि विभावभाव होते हैं। यदि जीव के विभाव भाव न हों तो पुराने कर्म के उदय को निमित्त नहीं कहते । मोह-राग-द्वेष के निमित्त से ही नवीन कर्मों का बंध होता है तथा उनका विनाश होने से नये कर्म नहीं बंधते हैं।
जीव जब अपने स्वभाव से चूककर पर में सुखबुद्धि करके मोहराग-द्वेष करता है, उस समय उसे उस कारण पुराने जड़कर्मों का उदय नवीन कर्मों के आने में निमित्त कहलाते हैं। जब जीवों के उपादान की वैसी योग्यता होती है, तब तदनुकूल द्रव्यकर्म के उदय को निमित्त कहा जाता है। वस्तुतः तो दोनों स्वतंत्र हैं। स्वतंत्र होते हुए दोनों में ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है।
जड़ नये कर्म वस्तुतः तो स्वयं की तत्समय की योग्यता से बंधते हैं, परन्तु जड़कर्म के आने में योगों का कम्पन होता है तथा राग-द्वेष भाव कर्म होते हैं।" ____ मिथ्यात्व, असंयम व कषाय ह्र ये तीनों मोहकर्म में आते हैं तथा योग नाम कर्म का भेद है। इसलिए पुराने मोहकर्म व नामकर्म का उदय नये ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में बहिरंग कारण हैं, ऐसा यहाँ बताया है। १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २१२, दिनांक २१-५-५२, पृष्ठ-१७२१
मोक्षपदार्थ का व्याख्यान
गाथा - १५०-१५१ विगत गाथा में मिथ्यात्वादि पर्यायों में द्रव्यकर्म को बहिरंग कारण बताया है।
अब प्रस्तुत गाथाओं में भाव मोक्ष का स्वरूप कहते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो। आम्रवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दुणिरोधो।।१५०।। कम्मस्साभावेण य सव्वण्ह सव्वलोगदरिसी य। पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सुहमणंतं ।।१५१।।
(हरिगीत) मोहादि हेतु अभाव से ज्ञानी निरासव नियम से। भावासवों के नाश से ही कर्म का आसव रुके||१५०|| कर्म आसवरोध से सर्वत्र समदर्शी बने । इन्द्रिसुख से रहित अव्याबाध सुख को प्राप्त हों।।१५१|| मोह, राग-द्वेषरूप हेतुओं का अभाव होने से ज्ञानी को नियम से आस्रव का निरोध होता है और आस्रव भाव के अभाव में कर्म का निरोध होता है तथा कर्मों का अभाव होने से वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होता हुआ इन्द्रियरहित, अव्याबाध अनन्त सुख को प्राप्त करता है।
आचार्य श्री अमृतचन्द स्वामी टीका में कहते हैं कि ह्र "आस्रव का हेतु वास्तव में जीव का मोह-राग-द्वेष रूप भाव है। ज्ञानी के मोहादिक का अभाव होने से आस्रव भाव का अभाव होता है। आस्रव भाव का अभाव होने से कर्मों का अभाव होता है। कर्म का अभाव होने से सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, अतीन्द्रिय अनन्त सुख होता है। यही जीवन्मुक्त नामक भाव मोक्ष है।
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