Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 224
________________ ४३० पञ्चास्तिकाय परिशीलन जाही समै होइ ताहीसमै सुभासुभ रूप, द्रव्य कर्म संवर है कर्म का अकरना ।। कारन अभाव होते कारज अभाव होइ, कारन के होते काज लोक मैं समरना । भावरूप संवर ते द्रव्यरूप संवर है, भेदग्यान मारग तैं मोख मैं उतरना।।१३६ ।। संवर के स्वरूप का कथन करते हुये कवि कहते हैं कि ह्र “जब शुभाशुभ भाव का निवारण होता है, तभी शुभाशुभरूप द्रव्यकर्मों का निवारण हो जाता है। द्रव्यकर्म का अभाव होने से भावकर्म के अभाव रूप संवरदशा प्रगट हो जाती है; क्योंकि कारण का अभाव होने कार्य का भी अभाव हो जाता है। गुरुदेव श्री कानजी स्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्र “जो जीव निश्चय से परद्रव्यों की तरफ उपेक्षाभाव रखते हैं, उन्हें संवर होता है। यहाँ मुनियों की अपेक्षा से कथन है। दया-दान आदि का भाव शुभ है तथा हिंसा, झूठ आदि के भाव अशुभ हैं। जब मुनियों के मन-वचनकाया के निमित्त से शुभाशुभ भाव होते नहीं हैं तथा जब स्वभाव में लीनता वर्तती है, उस समय जो आते हुए कर्म रुक जाते हैं, वह द्रव्य संवर है। तात्पर्य यह है कि जब महामुनि के सर्व प्रकार से शुभाशुभ की निवृत्ति होती है, तब आगामी कर्मों का निरोध होता है। शुद्धात्मा का अवलंबन लेने से राग-द्वेष की उत्पत्ति ही नहीं होती। इसे ही भावकों का नाश होना कहते हैं तथा उनके निमित्त से द्रव्यकर्म स्वयं नहीं आते।" इसप्रकार अत्यन्त सरल भाषा में संवर का विशेष स्वरूप कहा। गाथा - १४४ विगत गाथा में संवर का विशेष स्वरूप कहा। अब प्रस्तुत गाथा में निर्जरा पदार्थ की व्याख्या करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं । कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं।।१४४।। (हरिगीत) शुद्धोपयोगी भावयुत जो वर्तते हैं तपविौं । वे नियम से निज में रमें बहु कर्म को भी निजरें।।१४४।। जो जीव संवर और योग से युक्त होता है, वह बहुविधतपों सहित वर्तता है, अतः वह नियम से अनेक कर्मों की निर्जरा करता है। ___ आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “संवर अर्थात् शुभाशुभ परिणाम का निरोध और योग अर्थात् शुद्धोपयोग; इन दोनों से युक्त पुरुष अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन तथा कायक्लेशादि भेदोंवाले बहिरंग तपों सहित और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान भेदों वाले अन्तरंग तपों सहित वर्तता है। वह पुरुष वास्तव में अनेक कर्मों की निर्जरा करता है। इसलिए यहाँ ह्र इस गाथा में ऐसा कहा है कि ह्न 'कर्म की शक्ति को क्षीण करने में समर्थ अन्तरंग और बहिरंग तपों द्वारा बढ़ा हुआ शुद्धोपयोग भाव निर्जरा है और उस शुद्धोपयोग के निमित्त से नीरस हुए उपार्जित कर्म पुद्गलों का एकदेश क्षय होना द्रव्य निर्जरा है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्न (दोहा ) संवर-जोग विमल सहित, विविध तपोविधि धार। बहुत करम निर्जर करन, सो मुनि त्रिभुवन सार।।१३७।। (224) १- श्रीमद् सद्गुरु प्रसाद नं. २०४, दिनांक १५-५-५२, पृष्ठ-१६५२

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