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पञ्चास्तिकाय परिशीलन ताकै सुभासुभ रूप कर्म कोई आवै नाहिं,
संवर सु होता जाइ गुन कौं बढ़ावै है। भावरूप संवर ते द्रव्यकर्म संग रहै, आतमा सरूप गामी आप मांहि आवै है।।१३३ ।।
(दोहा) जो आतम आतम विषै, आतम लखि थिर होड़।
सो संवर संवरन है, सकल करम को जोड़।।१३४ ।। उक्त छन्दों में कवि कहते हैं कि ह्र “जिसके राग-द्वेष-मोह नहीं हैं, मात्र एक निर्विकार चेतना स्वभाव है, सांसारिक सुख-दुःख से जो उदास (विरक्त) हो गये हैं, उनके शुभाशुभ कर्मों का आस्रव नहीं होता। आत्मा के स्वरूप में स्थिर हो गये हैं, उनके संवर होता है।" ___गुरुदेव श्री कानजीस्वामी व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि ह्न जिस पुरुष को समस्त परद्रव्यों में प्रीति भाव, द्वेषभाव तथा तत्त्वों की अश्रद्धा रूप मोहभाव नहीं है तथा समान है सुख-दुःख जिसके ह्र ऐसे महामुनि के शुभरूप व पापरूप पुद्गल द्रव्य आस्रव को प्राप्त नहीं होते।
यहाँ छटवें-सातवें गुणस्थान में झूलते मुनि की अपेक्षा से कथन किया है। कहते हैं कि महामुनियों को पर के कारण प्रमोद नहीं होता, किन्तु अपने स्वयं के कारण सर्वज्ञ भगवान के प्रति शुभ राग आता है। मुनिराजों को सम्पूर्ण पर पदार्थ ज्ञान के ज्ञेय होते हैं, उनकी अपने स्वभाव में लीनता है, इसकारण उनके राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार मुनियों को तत्त्व की अश्रद्धा भी नहीं होती।
वे यह भी नहीं मानते कि शरीर की निरोता में ही धर्म हो सकता है तथा रोगी शरीर में रोग हो तो धर्म नहीं हो सकता। इसी तरह सुख-दुःख में भी मुनियों को समान भाव वर्तता है।"
इसप्रकार गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने वादिराज आदि मुनियों के दृष्टान्त देकर सच्चे मुनियों के स्वरूप पर विशेष प्रकाश डाला है। .
है। . १- श्रीमद् सद्गुरु प्रसाद नं. २०४, दिनांक मई, १९५२, पृष्ठ-१६४९
गाथा -१४३ विगत गाथा में सामान्यरूप से संवर का स्वरूप कहा है। अब प्रस्तुत गाथा में विशेषरूप से संवर के स्वरूप का कथन हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णस्थि विरदस्स। संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स।।१४३।।
(हरिगीत) जिस व्रती के त्रय योग में जब पुण्य एवं पाप ना।
उस व्रती के उस भाव से तब द्रव्यसंवर वर्तता ।।१४३।। जिस मुनि को विरत रहते हुए जब योग में पुण्य और पाप नहीं होते, तब उसे शुभाशुभ भावकृत कर्मों का संवर होता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “जिस योगी को विरत अर्थात् सर्वथा निवृत्त वर्तते हुए मन-वचन और काय सम्बन्धी क्रिया में शुभ परिणाम रूप पुण्य तथा अशुभ परिणाम रूप पाप नहीं होते, तब उसे शुभाशुभ भाव निमित्तक द्रव्यकर्मों का अभाव होने के कारण द्रव्य संवर होता है और शुभाशुभ परिणाम के निरोध पूर्वक भाव संवर होता है।" कवि हीरानन्दजी इसी भाव को काव्य में कहते हैं ह्र
(दोहा) पुण्य-पाप नहिं जोग मैं, जा मुनि कै जिस बार। ताकै तब संवरन है, करम सुभासुभ द्वार।।१३५ ।।
(सवैया इकतीसा) सब निवृत्त मुनि विरति कै जोगौं विषै,
सुभासुभ रूप परिनाम का निवरना।
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