Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 221
________________ गाथा - १४१ विगत गाथा में पापास्रव भावों का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में संवरतत्व का स्पष्टीकरण किया जा रहा है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्ठ मग्गम्हि । जावत्तावत्तेसिं पिहिदं पावासवच्छिदं ।।१४१।। (हरिगीत) कषाय-संज्ञा इन्द्रियों का, निग्रह करें सन्मार्ग से। वह मार्ग ही संवर कहा, आस्रव निरोधक भाव से||१४१|| जो व्यक्ति भलीभाँति मोक्षमार्ग में रहकर इन्द्रियों, कषायों और आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञाओं का जितना निग्रह करते हैं, उनको उतना ही पापास्रव का छिद्र बंद होता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “पाप आस्रव के कथन के पश्चात् यह पाप के संवर का कथन है। ____ मुक्ति का मार्ग वस्तुतः संवर से ही प्रारंभ होता है। उसके निमित्त इन्द्रियों, कषायों तथा चार संज्ञाओं का जितने अंश में निग्रह किया जाता है, उतने अंश में पापासव का द्वार बन्द होता है।" उक्त गाथा के भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) इन्द्रिय संज्ञ कसाय का, निग्रह जावत काल । तितना काल ढक्या रहै, पापासव का जाल।।१२९ ।। (सवैया इकतीसा ) रत्नत्रय रूप मोक्ष मारग जिनेस कहया, सोई आप रूप जानि उद्यम सु करना। संवर पदार्थ (गाथा १४१ से १४३) इन्द्रिय कषाय संज्ञा तीनौ की अवज्ञा करि, निग्रह विधान सेती सुद्ध भाव भरना ।। जैता काल तेता काल पापरूप द्वार रुकै, दौनौं रूप जैसें तोय शुद्ध करना। सोई सुभ संवर है कर्म वैरी संगर है, गुन कौ अडंबर है आपरूप धरना।।१३० ।। (दोहा ) नूतन कर्म निरोध का, संवर कहिए नाम । पर-मिलाप तजि आपगत, शुद्धातम परिनाम।।१३१ ।। उक्त काव्यों में कहा गया है कि ह्न जबतक पाँच इन्द्रियों के विषयों का, आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह रूप चार संज्ञाओं का तथा क्रोधादि कषायों का निग्रह होता है तब तक पापास्रव नहीं होता। जिनेन्द्र देव ने रत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहा है, उसे आप रूप जानकर अपने आत्मा को जानने-पहचानने तथा उसी में स्थिर होने का प्रयत्न करना तथा इन्द्रियों, कषायों, संज्ञाओं की उपेक्षा करके शुद्धभाव धारण करना, जब तक ऐसा पुरुषार्थ होगा तब तक पापास्रव रुकेगा। बस इस आस्रव का रुकना ही संवर है। ___ इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “आत्मा जो विचार करता है, उसमें मन निमित्त होता है तथा पर पदार्थों को जानने में इन्द्रियाँ निमित्त हैं। आत्मा ज्ञान स्वभावी हैं, वह इन्द्रियाँ व मन के बिना ही हैं। जो ऐसे अतीन्द्रिय आत्मा की रुचि करके, मन व इन्द्रियों की रुचि छोड़कर क्रोध-मान-माया-लोभ तथा चार संज्ञाओं के पाप परिणाम छोड़कर जिस समय स्वभाव की दृष्टि करता है, उसी समय मिथ्यात्व की अनुत्पत्ति हो जाती है तथा सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है। देह मन वाणी के बिना तथा विकारी भावों के बिना जो मेरा ज्ञान (221)

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