Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 220
________________ ४२२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन ( सवैया इकतीसा) तीव्र मोह उदय होइ आहारादि संज्ञा चारि, लेस्या तीन कृष्ण आदि परिनाम लेस हैं। राग-द्वेष उदैवस इन्द्रिय अधीनताई, इष्ट कै वियोग आदि आरत कलेस हैं।। कषाय क्रूरताई है, हिंसानन्द आदि रौद्र, दुष्ट नयाधीन उथान मूढ़ता निवेस है। एई भावपापास्रव द्रव्य पाप आम्रव हैं, इनसौ निराला आप सुद्ध उपदेस है।।१२७ ।। (दोहा) पुण्य-पाप तैं आपको, न्यारा करै जु कोइ। सो नर सारा सुख लहै, आपद पदकौं खोइ।।१२८ ।। कवि हीरानन्दजी कहते हैं कि तीव्र कर्म के उदय में आहारादि चार संज्ञायें होती हैं तथा कृष्ण नील कापोत लेश्यायें होती हैं। राग-द्वेष के उदय से इन्द्रियों की अधीनता तथा रौद्रध्यान के परिणाम होते हैं। तत्त्वज्ञान और भेदविज्ञान होने पर ये कदाचित होते हैं, पर ज्ञानी इन्हें जानता है तथा यथाशक्ति इन्हें त्यागने का प्रयास भी करता है। इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “तीव्र मोह के उदय से आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ह्र ये चार संज्ञायें होती हैं, वे पाप की कारण हैं। १. आहार संज्ञा :हू अपने ज्ञान को आहार की प्रीति में रोक देना आहार संज्ञा है। आहार लेने के तीव्र भाव को आहार संज्ञा कहते हैं। २. भय संज्ञा :हू आत्मा के निर्भय स्वभाव को भय में रोकना। ३. मैथुन संज्ञा :हू अपने ज्ञान को इन्द्रियों के विषयों में रोकना। ४. परिग्रह संज्ञा :ह्न अपने ज्ञान को परिग्रह में अटका देना परिग्रह संज्ञा है? उक्त चारों ही संज्ञायें भूमिकानुसार ज्ञानी को भी चौथे, पाँचवें गुणस्थान में होती हैं, परन्तु ज्ञानी को ये संज्ञायें पुरुषार्थ की कमी के कारण होती हैं। पर ज्ञानी इन्हें हेय जानता है। आसव पदार्थ (गाथा १३५ से १४०) ४२३ लेश्यायें :ह्न जीव अपने ज्ञानस्वभाव को भूलकर स्वयं को जितना योग की प्रवृत्ति में कषाय सहित जोड़ता है, उसे लेश्या कहते हैं। "कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति लेश्या है" उनमें कृष्ण, नील, कापोत ह्र प्रारंभ की ये तीन अशुभ लेश्यायें हैं। अन्त की पीत, पद्म, शुक्ल - ये तीन लेश्यायें शुभ हैं। इन्द्रियाधीनता :ह्न अतीन्द्रिय स्वभाव की दृष्टि छोड़कर इन्द्रियों के आधीन रहना पाप आस्रव है। जिन्हें अतीन्द्रिय स्वभाव का भान है, उन्हें अस्थिरता जन्य अल्प आस्रव होता है। जो मिथ्यादृष्टि इन्द्रियों के विषयों में रुचि लेता है, उन्हें मिथ्यात्व सहित होने से तीव्र आस्रव होता है। आर्तध्यान :ह्न इष्ट पदार्थों के वियोग व अनिष्ट पदार्थों के संयोग में राग-द्वेष करना तथा पीड़ा चिन्तन व निदान बंध करना ह्र ये चार प्रकार का आर्तध्यान दुःखरूप है। ये भी पाप के कारण हैं। ज्ञानी को भी साधक दशा में आर्तध्यान होता है; किन्तु पर के कारण नहीं होता। कभी-कभी मुनियों को अपनी स्वयं की कमजोरी के कारण आर्तध्यान होता है। जब भगवान ऋषभदेव मोक्ष गये, तब चक्रवर्ती भरतजी को खेद हुआ था, किन्तु उन्हें उस समय आत्मा का भान था। शुभ के प्रति होने से उनके ध्यान शुभ आर्त कहा जाएगा। निदानबंध :ह्न अज्ञानी जीवों का जो ब्रत, तप आदि के फल में स्वर्गादि की प्राप्ति की भावना होती है। यह निदान आर्तध्यान है। रौद्रध्यान : यह ध्यान अशुभ ही होता है, पाप का कारण ही होता है। ये भी चार प्रकार का है ह्न १. हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी । ये ध्यान आनन्द रूप होते हैं। ज्ञानी को पाँचवें गुणस्थान तक रौद्रध्यान होता, परन्तु उसे यह भान है कि ये परिणाम पापास्रव हैं, तो भी रागवर्तता है, इसकारण कभी-कभी ऐसे परिणाम हो जाते हैं, परन्तु वह उन्हें हेय मानता है।" (220) १. श्रीगुरु प्रवचन प्रसाद नं. २०२, दि. ११-५-५२, पृष्ठ-१६३२

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