________________
४१८
पञ्चास्तिकाय परिशीलन कदाचित्करूप लसै सबही कसाय पुंज,
ग्यानी औ अग्यानी विषै जैसे ही कहावतें। चित्त की कलुषताई दूर करि सकै ग्यानी, जिनने बताई सदा वस्तु कै लखावत।।१२१ ।।
(दोहा) चित्त-कलुष जहाँ है नहीं, सो है अलख लखाव।
ताकै लखते लखत है, अलख सुलख का भाव।।१२२ ।। इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह जिस समय शुद्ध आत्मा का आश्रय छूटता है, उस समय क्रोधमान-माया तथा लोभ के जो परिणाम होते हैं, उन आकुलता के परिणामों को कलुषित परिणाम कहते हैं। अज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि 'मैं पर की पर्यायों को बदल सकता हूँ।' जबकि ज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि 'मैं परद्रव्य में फेरफार कर ही नहीं सकता। ज्ञानी चैतन्य स्वभाव की दृढ़ श्रद्धा रखता है और अज्ञानी पर कर्तृत्व के अभिमान से दुःखी रहता है। क्रोधादि सभी कषायों से अज्ञानी पीड़ित रहता है। यद्यपि ज्ञानी के अप्रत्याख्यान आदि क्रोधादि का अस्तित्व है, पर ज्ञानी का उनमें एकत्व नहीं है।"
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि ह्र यद्यपि अज्ञानी को भी मन्द कषाय रूप दया, दान आदि के भाव होते हैं, परन्तु वह ऐसा मानता है कि राग की मंदता मुझे लाभदायक है, इस कारण उसे मिथ्यात्व का पाप बना रहता है तथा मन्दकषाय तो ज्ञानी को भी होती, परन्तु उसे पर में अकर्तृत्व का भान होने से वह उनका कर्त्ता नहीं बनता।
इसप्रकार ज्ञानी व अज्ञानी - दोनों को ही मन्दकषाय रूप पुण्य भाव होते हैं; परन्तु ज्ञानी उस शुभभाव को लाभदायक नहीं मानता उनका कर्ता नहीं बनता। १. श्री सद्गुर प्रवचन प्रसाद २००, दि. १०-५-५२, पृष्ठ १६१७
गाथा - १३९ विगत गाथा में चित्त की कलुषता की बात कही गई है। अब प्रस्तुत गाथा में पापास्रव के स्वरूप का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसएसु। परपरिदावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि।।१३९।।
(हरिगीत) प्रमादयुतचर्या कलुषता, विषयलोलुप परिणति। परिताप अर अपवाद पर का, पाप आस्रव हेतु हैं।।१३९|| बहु प्रमाद वाली चर्या, कलुषता, विषयों में लोलुपता, पर को परिताप देना तथा पर से अपवाद बोलने ह्र पाप का आस्रव होता है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव इस गाथा की टीका में कहते हैं कि ह्र "बहु प्रमाद वाली चर्यारूप परिणति अर्थात् अति प्रमाद से भरे हुए आचरण रूप परिणति, कलुषता रूप परिणति, विषय लोलुपतारूप परिणति ह्र ये पाँच अशुभभाव-द्रव्य पापास्रव को निमित्त रूप से कारणभूत हैं, इसलिए द्रव्य पापास्रव के प्रसंग का अनुसरण करने के कारण वे अशुभभाव भाव आस्रव हैं। और वे अशुभभाव जिनके निमित्त हैं, ऐसे पुद्गलों के अशुभकर्म-द्रव्य पापास्रव हैं।" इसी विषय को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा) जग में प्रमाद रूपी क्रिया है अनादि ही की,
चित्त विषै मूढ़ता सौं अति ही कलुषता। विषयौ मैं लोलताई पर कौं आतपताई,
परापवाद ताईसौं वाद रूप रूखता ।। एई पाँचों परिणति असुभ हैं भाव पल,
द्रव्य पार करता है आतम विमुखता।
(218)