Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 222
________________ ४२६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन दर्शन-स्वभाव हैं, वह अन्त:तत्त्व है। यही मान्यता सम्यग्दर्शनरूप संवर का मार्ग है। यह संवर चौथे गुणस्थान से प्रगट होता है। इन्द्रियाँ हैं, मन भी है, पुण्य-पाप के भाव हैं; ये सब होते हुए भी इनकी रुचि छोड़कर त्रिकाल स्वभाव की रुचि करना संवर है। संवर में सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र तीनों समा जाते हैं। संवर मोक्षमार्ग है। पाँचों इन्द्रियों एवं मन को जीतने से संवर होता है। चार संज्ञाओं की ओर ढलते परिणाम को रोककर स्वभाव में एकाग्र होना संवर है। ___सम्यग्दृष्टि पशु हरी घास खाता हो, समकिती व्यक्ति हीरा-मणि का व्यापार करता हो, विषयों में रमता दिखता हो, कृष्ण, नील, कापोत आदि अशुभ लेश्याओं के परिणाम होते हों, उस स्थिति में भी आत्मा का भान होने के कारण नरक गति अनन्तानुबन्धी तथा मिथ्यात्व आदि ४१ कर्म प्रकृतियाँ नहीं बंधती। अतः मुमुक्षु को आत्मा को जाननेपहचानने का पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए।' ___ इसप्रकार यथार्थ श्रद्धा की प्रेरणा देते हुए यहाँ कहा गया है कि कदाचित् चौथे गुणस्थान की अविरत दशा में न तो इन्द्रियों के विरक्त हो पाया हो तथा न त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरक्त हो पा रहा हो; किन्तु जो जिनेन्द्र भगवान के कहे तत्त्वों का यथार्थ रीति से श्रद्धान करता है वह ४१ प्रकृतियों के बंध के अभाव के कारण अल्पकाल में मुनिव्रत धारण कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अत: सर्वप्रथम यथार्थ आत्म श्रद्धान का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। इसप्रकार संवर की चर्चा की। गाथा-१४२ विगत गाथा में संवरतत्व का स्वरूप कहा। अब प्रस्तुत गाथा में सामान्यरूप से संवर का ही और कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु। णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।।१४२।। (हरिगीत) जिनको न रहता राग-द्वेष अर मोह सब परद्रव्य में। आस्रव उन्हें होता नहीं, रहते सदा समभाव में ||१४२।। जिसे सर्वद्रव्यों के प्रति राग-द्वेष एवं मोह नहीं है, उस भिक्षु को निर्विकार चैतन्यपने के कारण सम सुख-दुःख हैं, उसे शुभ व अशुभ कर्म का आस्रव नहीं होता। ____ आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “जिसे समग्र परद्रव्यों के प्रति राग-द्वेष व मोहभाव नहीं होते, उस भिक्षु (मुनि) को, सुनिर्विकार चैतन्यपने के कारण सम सख-दुःख हैं, उसे शुभाशुभ कर्म का आस्रव नहीं होता, परन्तु संवर ही होता है। इसलिए यहाँ मोह-राग-द्वेष परिणाम का निरोध भाव संवर है और योग द्वारा प्रविष्ट होने वाले पुद्गलों के शुभाशुभ कर्म रूप परिणामों का निरोध द्रव्य संवर है। कवि हीरानन्दजी इसी के भाव को काव्य में कहते हैं ह्न (सवैया इकतीसा) रागरूप दोषरूप मोहरूप भाव जाकै, सुपर दरब विषै नैक नाहिं भाव हैं। निर्विकार चेतना-सभाव एक आतमीक, दुःख-सुख न्यारा सोई भिक्षुक कहावै है। (222) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २०४, दि. १३-५-५२, पृष्ठ-१६४८

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