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गाथा -१४०
पञ्चास्तिकाय परिशीलन ऐसा भाव द्रव्यपाप आपतै निराग करै, ___ ग्यानी सरवंग सुद्ध ग्यान माँहि पुखता।।१२४ ।।
(दोहा) पापरूप जब आप है, तब आपा अति अंध ।
विकलरहित सुख मूढ़गत, करै विविधविधि बंध।।१२५ ।। कवि कहते हैं कि ह्र जगत में अनादि से जीवों को प्रमाद परिणति है। मूढ़ता से चित्त में कलुषता है, विषयों में लोलुपता है, पर को दुःखदाई भाव है। इसप्रकार जीव अशुभ भावों वर्तता है तथा अपने आत्म स्वभाव से विमुख हो रहा है। ऐसे भाव से द्रव्य पाप होता है। ज्ञानी इन सबसे विमुख रहता है। यद्यपि उक्त भाव यदा-कदा ज्ञानी को भी होते हैं; परन्तु वह अधिकांश विरक्त रहता है।
इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “विषय-कषाय आदि अशुभ क्रिया से जीव के अशुभ परिणाम होते हैं, उन्हें भाव पापास्रव कहते हैं, उन भावास्रवों का निमित्त पाकर मन-वचन-काय के योग द्वारा जो जड़ परमाणु आते हैं, उसे द्रव्यास्रव कहते हैं। मन-वचन-काय के निमित्त से ह्र आत्मा के प्रदेशों का कम्पित होना योग है, ये योग कर्म परमाणु के आने में निमित्त होते हैं। द्रव्यदृष्टि से तो आत्मा में आस्रव होता ही नहीं है, परन्तु यहाँ ज्ञान प्रधान कथन है, इस कारण आत्मा का स्वरूप निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से बताया है।
शान्तदशा की प्रतिबन्धक प्रमादसहित क्रिया मुनि को भी यदा-कदा आर्तध्यान के रूप में होती है, परन्तु उन्हें उस भाव का स्वामित्व नहीं होता। कलुषतता का परिणाम ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को होता है, किन्तु दोनों की दृष्टि में बहुत बड़ा अन्तर होता है।"
इसप्रकार इस गाथा में पापास्रव का स्वरूप बताया।
विगत गाथा में पापासव के स्वरूप का कथन किया गया है। प्रस्तुत गाथा में पापास्रव भावों के विस्तार का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अट्टरुद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति।।१४०।।
(हरिगीत) चार संज्ञा तीन लेश्या पाँच इन्द्रियाधीनता। आर्त-रौद्र कुध्यान अर कुज्ञान है पापप्रदा ||१४०।। चार संज्ञायें, तीन लेश्यायें, पाँचों इन्द्रियों के विषय, आर्त-रौद्रध्यान रूप अशुभभावों में लगा हुआ ज्ञान और मोह ह्र ये सब भाव पापप्रद हैं।
टीकाकार आचार्य श्री अमृतचन्द्र विस्तार से कहते हैं कि ह्र तीव्र मोह के विपाक से उत्पन्न होने वाली आहार-भय-मैथुन और परिग्रह संज्ञायें, तीव्रकषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति, कृष्ण, नील, कापोत नामक ३ लेश्यायें, राग-द्वेष के उदय की उग्रता के कारण वर्तता हुआ इन्द्रियाधीनपना, राग-द्वेष के उद्रेक के कारण प्रिय के संयोग एवं अप्रिय के वियोग की वेदना से छुटकारे का विकल्प तथा हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द एवं विषय संरक्षणानंद रूप रौद्रध्यान, निष्प्रयोजन अशुभकर्म में दुष्टरूप से लगा हुआ ज्ञान और सामान्य रूप से दर्शन एवं चारित्र मोहनीय के उदय से उत्पन्न अविवेक रूप मोह; यह भावपापास्रव द्रव्यपापास्रव का विस्तार करने वाला है।
उपर्युक्त भावपापासव के अनेक प्रकार द्रव्यपापासव के निमित्त हैं। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
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१. श्रीगुरु प्रवचन प्रसाद नं. २००, दि. १०-५-५२, पृष्ठ-१६१८