Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 211
________________ ४०४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन जहाँ मोह का परिणाम हैं, इन्द्रियों के विषयों में तथा धन-धान्यादि में अप्रशस्त राग है, उसे अशुभ भाव कहते हैं, वह अशुभभाव शुद्धआत्मा से जुदा है।" जीव के सत् क्रियारूप, दया, दानादि परिणामों को शुभ अथवा पुण्य कहते हैं तथा विषय-कषाय आदि परिणामों को पाप कहते हैं। जितने प्रमाण में जीव पुण्य-पाप के भाव करता है, उतने प्रमाण में ज्ञानावरणादि कर्म बांधता है; परन्तु जितने प्रमाण में कर्म का उदय आये, उतने ही प्रमाण में विकार करना ही पड़े - ऐसा नियम नहीं है। भावों के कारण द्रव्य कर्मों को आना ही पड़े ह्र ऐसी पराधीनतापुद्गल को नहीं है, किन्तु उस समय कर्म वर्गणा के परमाणुओं की वैसी ही योग्यता है। कोई भी व्यक्ति किसी पर द्रव्य का कर्त्ता नहीं है। जीव तो स्वभाव दृष्टि से उनको जानने वाला है। ___ जीव को जब शुभभाव का निमित्त मिलता है, तब पुण्य प्रकृति के परमाणु बंध जाते हैं। दोनों का एक ही समय है, आगे-पीछे नहीं। भावपुण्य को पहले कहा तथा द्रव्य पुण्य की बात बाद में कही, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे दोनों आगे-पीछे होते हैं। दोनों का एक काल है। आत्मा में जो पुण्य-पाप का विकार होता है, वह हेय है, बंध का कारण है। आत्मा शुद्ध ज्ञानानन्द स्वरूप है, उस शुद्ध स्वभाव चूकने से विकारभावों की उत्पत्ति होती है। कर्म तो कर्म के कारण बंधते हैं, वे पुद्गल की पर्यायें हैं। जीव जितने प्रमाण में विकार करता है, उसी प्रमाण में नवीन कर्म बंधते हैं।" इसप्रकार संक्षेप में पुण्य-पाप का स्वरूप एवं विषय बताया तथा धर्म इन पुण्य-पाप अर्थात् शुभाशुभ भावों से भिन्न है। पुण्य के फल में स्वर्ग तथा मनुष्य भव में अनुकूल सुख-सामग्री प्राप्त होती है तथा पाप के फल में नरक तिर्यंचगति के दुःख प्राप्त होते हैं। धर्मी ज्ञानी जीव पुण्य-पाप से पार वीतराग धर्म की साधना/ आराधना करके अनन्त सुख स्वरूप मुनि प्राप्त करते हैं। गाथा - १३३ विगत गाथा में कहा है कि ह्र शुभाशुभभाव पुण्य-पाप रूप हैं। अब प्रस्तुत गाथा में मूर्तकर्म का समर्थन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं। जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि।।१३३।। (हरिगीत) जो कर्म के फल विषय हैं, वे इन्द्रियों से भोग्य हैं। इन्द्रिय विषय हैं मूर्त इससे करम फल भी मूर्त हैं।।१३३|| कर्म के फल में प्राप्त इन्द्रिय विषय मूर्त हैं; क्योंकि वे जीव के द्वारा इन्द्रियों के माध्यम से सुख-दुःख रूप से भोगे जाते हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि यह मूर्तद्रव्य का समर्थन है कर्मफल जो सुख-दुःख के हेतु भूतमूर्त विषय हैं, वे नियम से मूर्त इन्द्रियों द्वारा जीव से भोगे जाते हैं, इसलिए कर्म के मूर्तपने का अनुमान होता है। जिसप्रकार मूषक विष मूर्त है, उसी प्रकार कर्ममूर्त हैं, क्योंकि मूर्त के सम्बन्ध द्वारा अनुभव में आने वाला ऐसा मूर्त उसका फल है। टीका में विशेष खुलासा इसप्रकार है कि ह्र चूहे के विष का फल सूजन आदि के रूप में मूर्त है और मूर्त शरीर के द्वारा अनुभव में आता है; इसलिए अनुमान होता है कि चूहे का विष मूर्त है, उसीप्रकार कर्म का फल मूर्त है और मूर्त इन्द्रियों के सम्बन्ध द्वारा अनुभव में आता है, इसलिए अनुमान होता है कि कर्म मूर्त है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं ह्र (211) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९६, दि. ५-५-५२, पृष्ठ-१५८२-१५८५

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