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गाथा - १३१-१३२ विगत गाथा में पुण्य-पाप के परिणामों की चर्चा की। अब प्रस्तुत गाथा में पुण्य-पाप के स्वरूप का कथन कर रहे हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि । विजदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो।।१३१।। सुहपरिणामों पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। दोण्हं पोग्गलमत्तो भावो कम्मत्तणं पतो।।१३२।।
(हरिगीत) मोह राग अर द्वेष अथवा हर्ष जिसके चित्त में। इस जीव के शुभ या अशुभ परिणाम का सद्भाव है।।१३१|| शुभभाव जिय के पुण्य हैं अर अशुभ परिणति पाप हैं। उनके निमित्त से पौद्गलिक परमाणु कर्मपना धरें।।१३२।। जिसके भाव में मोह-राग-द्वेष अथवा चित्त प्रसन्नता है, उसे शुभ या अशुभ परिणाम हैं।
जीव के शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप हैं; उन दोनों के द्वारा पुद्गल कर्मपने को प्राप्त होते हैं। अर्थात् जीव के पुण्य-पाप के निमित्त से पुद्गल साता-असाता वेदनीयादि रूप होते हैं, वे पुद्गल परिणाम व्यवहार से जीव के कर्म कहे जाते हैं। __ आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “यह पुण्य-पाप के स्वरूप का कथन है। दर्शनमोहनीय के निमित्त से जो कलुषित परिणाम होते हैं, वह मोह है। चारित्र मोहनीय का विपाक जिसका निमित्त है - ऐसी प्रीति-अप्रीति राग-द्वेष है।
चारित्र मोहनीय के ही मन्द उदय में होने वाले विशुद्ध परिणाम मन की प्रसन्नता रूप परिणाम हैं। इसप्रकार ये मोह-राग-द्वेष अथवा चित्त
पुण्य-पाप पदार्थ (गाथा १३१ से १३४)
४०१ प्रसाद जिनके भावों में है, उसके शुभ या अशुभ परिणाम हैं। उसमें जहाँ प्रशस्त राग तथा चित्त प्रसन्नता है, वहाँ शुभ-परिणाम हैं तथा जहाँ मोहराग-द्वेष हैं, वहाँ अशुभ परिणाम हैं। ___ यहाँ कहते हैं कि जीव कर्ता है और उसके शुभ परिणाम अशुद्ध निश्चयनय से भावकर्म है तथा पुद्गलकर्म वर्गणायें कर्ता हैं और साता वेदनीय आदि विशिष्ट प्रकृतियाँ रूप परिणाम द्रव्यकर्म हैं। ___तात्पर्य यह है कि निश्चय से जीव के अमूर्त शुभ-अशुभ परिणामरूप भाव पुण्य-पाप जीव के कर्म हैं। उन शुभाशुभ परिणामों में द्रव्य पुण्यपाप अर्थात् पुद्गल कर्म निमित्त कारण होने से मूर्त पुद्गल रूप द्रव्यपुण्य-पाप कर्म व्यवहार से जीव के कर्म कहे जाते हैं। कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं कि ह्न
(दोहा) मोह राग अरु दोष जसु, चित्त प्रसन्नता होइ। ता आतमकै सुभ असुभ, करमरूप फल होइ।।१२।।
(सवैया इकतीसा) दरसनमोहनीकै उदै गहलताई है,
तत्व अर्थ जानै नाहिं मोह ताकौं कहिए। इष्टविष प्रीति राग दोष है अनिष्टविषै,
दौनौंरूप मोह एक-भाव पाप लहिए ।। मोहमंदउदै भये चित्तमैं प्रसन्नताई,
___दान-पूजा आदि तारौं पुण्यबंध गहिए। दौनौंतें निराला जानि चिदानंद आप मानि, तीनौं भाव नासि नासि मोखरूप रहिए।।९३ ।।
(दोहा) पुण्य-पाप ए आपतै, न्यारे सदा विचार । मोखरूप बाधक सदा, साधक-पद संसार।।९४ ।।
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