Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 208
________________ ३९८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन गति' वालों को देह होती है, देह से इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है। ___ संसार चक्र में जीव को ऐसे भाव अनादि-अनन्त अथवा अनादिसांत रूप से चक्र की भाँति पुनः पुन होते रहते हैं। आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव उक्त गाथाओं की टीका में कहते हैं कि ह्र इस लोक में संसारी जीव को अनादि बंध रूप उपाधि के वश स्निग्ध परिणाम होते हैं, परिणामों से पौद्गलिक कर्म, कर्म से नरकादि गतियों में गमन, गति से देह, देह से इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से विषयग्रहण, विषय ग्रहण से राग-द्वेष, राग-द्वेष से फिर रागादि रूप स्निग्धपरिणाम, उन परिणामों से फिर द्रव्यकर्म, द्रव्यकर्म से फिर नरकादि गतियों में गमन ह्र इस प्रकार संसार चक्र के अन्योन्य कार्य-कारणभूत जीव व पुद्गल परिणामात्मक कर्मजाल के चक्र में जीव अनादि-अनन्त रूप से या अनादि-सांतरूप से चक्र की भाँति पुनः पुनः घूमता रहता है। अब कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्न (सवैया इकतीसा ) जगवासी जीव विषै मोह-राग-दोष-रूप, परिनाम वर्तमान सदा आचरतु है। ताही परिनाम का निमित्त पाय द्रव्य कर्म, नानारूप नवा बांध जीव मैं भरतु है ।। करम कै उदै आये गतिनाम उदै होइ, ताते च्यारौं गति माहि देह कौं धरतु है। देह में इन्द्रिय पाँच खाँचि सकै नाहि जीव, भवरूप मरते मैं दौरि कै परतु है।।८६ ।। उक्त पद्य में कवि हीरानन्दजी कहते हैं कि - संसारी जीव मोहराग-द्वेषरूप विषय कषायों में सदा प्रवर्तते हैं। उन परिणामों का निमित्त पाकर द्रव्यकर्म जीव के साथ नानारूप से बंधते हैं। जब कर्मों का उदय आता है तो जीव चारों गतियों में परिभ्रमण करता है। इसतरह यह जीव अपने को भूलकर विषय-कषाय के वशीभूत होकर संसार चक्र में भटकता अजीव पदार्थ (गाथा १२४ से १३०) रहता है। संसार में भटकते हुए कदाचित् भली होनहार से भव्यजीव आत्मा का भान करके सुलट जाता है। इन गाथाओं का अर्थ करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “जो संसारी जीव अपने शुद्ध आत्मा को न जानकर स्वयं को कर्मोपाधि के वश करते हैं। दया, दानादि जितना ही स्वयं को मानकर भ्रम से कर्मों को बांधते हैं, वे पर्याय बुद्धि वाले जीव मिथ्यात्वरूप परिणाम करते हैं तथा कर्म बाँधते हैं। कर्म बांधते' हैं का तात्पर्य यह है कि ह्र उक्त मिथ्यात्वरूप अशुद्धपरिणामों का निमित्त पाकर जड़ कार्माण वर्गणायें स्वयं अपने कारण परिणम जाती हैं। जिन्हें गतिरहित स्वभाव की खबर नहीं है, वे जीव कर्मों के निमित्त से गति को प्राप्त होते हैं तथा जैसी गति की योग्यता होती है, वैसा शरीर मिलता है। जैसा शरीर होता है वैसी तदनुकूल इन्द्रियाँ मिलती हैं। जैसी इन्द्रियाँ होती तदनुकूल विषयों का ग्रहण होता है। इन्द्रियाँ बाह्य विषयों को ग्रहण करती हैं, आत्मा को नहीं। इस तरह अज्ञानी की दृष्टि विषयों पर जाती है। उसे अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की खबर ही नहीं होती। इस कारण उसकी दृष्टि अनिष्ट पदार्थों के प्रति राग-द्वेष किया करती है। इसके फल में पूर्ण कर्म के अनुसार नवीन कर्मबंध होता रहता है। मिथ्यादृष्टि जीव का कर्मों के साथ कारण-कार्य सम्बन्ध है।" इसप्रकार रागी-द्वेषी मलिनभाव वाले आत्मा को ऐसे अशुद्ध भाव हुआ करते हैं। भव्य जीव यदि अपने (निज) आत्मा का भान करे तो संसार का अंत अवश्य आता ही है। अतः यह नक्की हुआ कि पुद्गल परिणाम के निमित्त से जीव अपने अज्ञान के कारण अशुद्ध परिणाम करता है तथा उन अशुद्ध परिणामों के निमित्त से जड़कर्म का परिणाम होता है। ऐसा कहकर यह कहते हैं कि कर्म एवं राग के ऊपर से दृष्टि हटाले और ध्रुव आत्मद्रव्य पर अपनी दृष्टि केन्द्रित कर! ऐसा करने से ही तेरा कल्याण होगा। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९५, दि. ४-५-५२, पृष्ठ-१५६५ (208)

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