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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
(दोहा)
जीवभाव शुभ पुण्य है, अशुभ भाव है पाप । दोनों तैं पुग्गल करम, होइ विविध परिताप । । ९५ ।। (सवैया इकतीसा )
जीव परिनाम शुभ भाव पुण्य नाम कह्या,
अशुभ परिनाम कौं भाव पाप कहिए । भाव पुण्य कारन तैं पुद्गल परमाणु,
कारमान रूप पुंज द्रव्य पुण्य कहिए ।। भाव पाप का निमित्त कारमान वर्गना है,
पुंजरूप द्रव्य पाप काजरूप गहएि । ऐसैं पुण्य-पाप सैती सुद्ध उपयोग न्यारा,
आप रूप जान सैती कर्म पुंज दहिए ।। ९६ ।। (दोहा)
दरवित भावित प्रगट है, पुण्य-पाप पद दोइ । पुण्य उदै सुख होत है, पाप उदै दुःख होइ ।। १०२ ।। कवि हीरानन्दजी के काव्यों का भाव यह है किह्नजिसका चित्त रागद्वेष-मोह में प्रसन्न होता है, उसको शुभ-अशुभ कर्मों का बंध होता है।
दर्शनमोह से ही गहलता आती है कि जिससे तत्त्वार्थ को नहीं जान पाता । इष्टानिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष करता है। जब मोह मंद होता है तब चित्त में प्रसन्नता होती है, दान-पूजा आदि करके पुण्य-बंध करता है। जब यह स्वयं को पुण्य-पाप से निराला जानता है, स्वयं को चिदानन्द स्वरूप मानता है तब मोक्ष को प्राप्त करता है।
कवि के पद्यों का भाव यह है कि ह्न जीव के शुभभाव पुण्य तथा अशुभभाव पाप है। दोनों से पुद्गल कर्मों का बंध होता है। द्रव्य कर्मों के निमित्त से राग-द्वेषरूप भावकर्म होते हैं। ऐसे पुण्य पाप से आत्मा का शुद्ध उपयोग भिन्न हैं। उसे जानकर कर्मों को नष्ट किया जा सकता है।
दोहे १०२ में कहा है कि ह्न द्रव्य कर्म व भाव कर्म ह्र दोनों पुण्य-पाप
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पुण्य-पाप पदार्थ (गाथा १३१ से १३४)
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रूप हैं, पुण्य के उदय से सुख होता है और पाप के उदय से दुःख होता है। गुरुदेव श्री कानजीस्वामी १३१वीं गाथा में कहते हैं कि ह्न “जिस जीव को शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि नहीं है तथा सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की रुचि नहीं है, उसे मिथ्यात्व का परिणाम होता है। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के कारण मोह के परिणाम होते हैं- ये निमित्त का कथन है। जब जीव के मोह के परिणाम रूप नैमित्तिक अवस्था होती है तब कर्म के उदय को निमित्त कहते हैं। अज्ञानी जीव परपदार्थों को आत्मा का सहायक मानते हैं, किन्तु उनकी भ्रान्ति है । जब पुण्य के परिणाम भी आत्मा के सहायक नहीं है तो फिर पुण्य के परिणाम जिस लक्ष्य से होते हैं वे परपदार्थ तथा पुण्य से वस्तु प्राप्त होती है, उससे आत्मा का कल्याण कि प्रकार हो सकता है? नहीं हो सकता ।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी १३२वीं गाथा पर व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि ह्न “आचार्यदेव प्रथम मोह के परिणाम की पहचान कराते हैं। आत्मा की शान्ति आत्मा में है' ऐसा न मानकर 'पर' में से शान्ति मिलती है ह्न ऐसी मान्यता अज्ञान का परिणाम है, इसलिए जिनको सुखी होना हो, उन्हें चिदानन्द आत्मा में यथार्थ श्रद्धा एवं ज्ञान करना चाहिए।
आत्मा स्वयं सत् पदार्थ हैं, उसकी अपेक्षा अन्य वस्तुएँ असत् हैं । दया दानादि का भाव पुण्य हैं, उसका विषय परद्रव्य है। परवस्तु की रुचि करना राग रूप पाप का परिणाम है। पर वस्तु हमारे सोच से नहीं आती जाती है। परवस्तु और हमारे बीच वज्र की दीवाल है।
भावार्थ यह है कि ह्न जिन जीवों को शुद्ध आत्म तत्व में रुचि नहीं है तथा सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की रुचि (श्रद्धा) नहीं है, उन्हें मिथ्यात्व का परिणाम होता है। 'दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के कारण मोह का परिणाम होता है।' यह कथन निमित्त की अपेक्षा से है। जब उपादान में कर्म के निमित्त से भाव होता है, उसे नैमित्तिक परिणाम कहते हैं। अज्ञानी जीव पर पदार्थों को जो आत्मा का सहायक मानता है, वह उसकी भ्रान्ति है । पुण्य का परिणाम आत्मा को सहायक नहीं है तथापि पुण्य के परिणाम से लक्ष्य जो हो तथा पुण्य से जो वस्तु प्राप्त हो उससे आत्मा का कल्याण नहीं होता ।