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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
( सवैया इकतीसा )
जीव के प्रशस्त राग अनुकंपा परिनाम, चिन्तता कालुष नाहीं तीनों शुभ भावना । पुण्य रूप आस्रव कै बाहिर के कारण हैं,
तातैं भाव-पुण्य मुख्य आत्मीक पावना ।। ताही का निमित्त पाय, सुभ द्रव्य कर्म पुंज,
जोग द्वार आवै पुण्य आस्रव कहावना । ऐसा भाव द्रव्य रूप आस्रव स्वरूप जानि,
आप रूप-न्यारा मानि आप माहिं आवना । । १११ ।। (दोहा)
राग-दोष अरु मूढ़ता ये भावास्रव भेद । पुद्गल पिण्ड समागमन दरवित आस्रव भेद । । ११२ ।। उपर्युक्त पद्यों में यह कहा है कि ह्न “जीव के प्रशस्त राग, अनुकम्पा आदि के भाव शुभभाव हैं उनका निमित्त पाकर शुभ द्रव्यकर्मों का आ योगद्वार से होता है। ऐसा भावास्रव एवं द्रव्यास्रव का स्वरूप है। रागद्वेष व मोह ह्न ये भावास्रव के भेद है, आत्मा इनसे न्यारा है।
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्न “जीव को जो देव -शास्त्र-गुरु के प्रति प्रीति भाव आता है, वह पुण्यास्रव का कारण है। जीवों पर दया का भाव भी पुण्यास्रव का कारण है। यहाँ भावास्रव को पहले कहा है तथा पीछे द्रव्यास्रव होने की बात की, परन्तु दोनों में समय भेद नहीं बताना है, बल्कि भावास्रव, द्रव्यास्रव का कारण हैह्र ऐसा कारणपना बताने के लिए ही यहाँ भावास्रव को पहले कहा है।
दूसरी बात ह्न परिणामों में कलुषता नहीं हुई, मंदकषायरूप सरल परिणाम रहे, इसलिए भी पुण्यास्रव है । चित्त की प्रसन्नता का शुभ परिणाम भी पुण्य आस्रव है। जीव के ये परिणाम भावास्रव हैं तथा इनके निमित्त से पुण्य-पाप के जो जड़ रजकण बंधते हैं, वे द्रव्यास्रव हैं। "
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९९, पृष्ठ- १६०३, दिनांक ८-५-५२
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गाथा - १३६
विगत गाथा में पुण्य आस्रव का स्वरूप समझाया। अब प्रस्तुत गाथा में प्रशस्त राग का स्वरूप कहते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र अरहंत सिद्धसाहू भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । अगमणं पि गुरूणं पत्थरागो त्ति वुच्छंति । । १३६ ।।
(हरिगीत)
अहं सिद्ध असाधु भक्ति गुरु प्रति अनुगमन जो । वह राग कहलाता प्रशस्त जँह धरम का आचरण हो ॥१३५॥ अरहंत, सिद्ध, साधुओं के प्रति भक्ति, धर्म में यथार्थ चेष्टा और गुरुओं का अनुगमन प्रशस्त राग कहलाता है।
आचार्य श्री अमृतचन्ददेव टीका में कहते हैं कि ह्न “अरहंतसिद्ध व साधुओं के प्रति भक्ति, व्यवहार धर्म में शुभ आचरण तथा आचार्य आदि गुरुओं का अनुसरण करना प्रशस्त राग है; क्योंकि इनका फल प्रशस्त है।
यह प्रशस्त राग वास्तव में स्थूल लक्ष वाला होने से मात्र भक्ति प्रधान है जिनके, मुख्यतया ऐसे अज्ञानी जीवों के होता है। उच्च भूमिका अर्थात् ऊपर के गुणस्थानों में न पहुँचे तब अयोग्य स्थान को राग नहीं हो, एतदर्थ कदाचित ज्ञानियों को भी होता है।"
इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं
( सवैया इकतीसा )
पूजै अरहंत सिद्ध आचारिज उपाध्याय,
साधु पंच परमेष्ठी विषै भक्ति करनी । धर्म विवहाररूप चारित आचारज रूप,
वस्तु-धर्म-साधन मैं प्रीति रीति धरनी । पंचाचारी गुरुहूँ की उपासना सदाकाल,
एई तीन मिथ्यारीति मोख की कतरनी ।