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पञ्चास्तिकाय परिशीलन (दोहा) करमपुंज के फल विषै, सुख-दुःखरूपी मर्म । इन्द्रिय करि जिय भोगवै ता” मूरत कर्म।।१०४ ।।
(सवैया इकतीसा) कर्म कै विपाक माहिं जो जो फल उदै रूप,
सो सो पाँच इन्द्रियों के, विषै ही बताये हैं। सोई पाँच इन्द्री करि जीव भोग-योग सबै,
सुखी-दुःखी रूप नाना भेद सौं जताये हैं। इन्द्री मूरतीक तातें जीव इन्द्रीधारी मूर्त,
विषै मूरतीक दिखै कारज सुहाया है ।। कारन सरूप तातें करम सौं मूरतीक, कारन सा कारज है, ज्ञानी सोध पाया है।।१०५ ।।
(दोहा) मूरत जाकै फल लसैं, मिलैं करम जो होइ।
सो मूरत कहो क्यों नहीं, पुग्गल रूपी सोइ।।१०६ ।। कवि हीरानन्द कहते हैं कि ह्र कर्मों के फल में जो सुख-दुःख रूप फल प्राप्त होते हैं। उन सुख-दुःख के निमित्त से पुद्गल कर्म बंधते हैं, उन पुद्गल कर्मों के निमित्त से इष्टानिष्ट बाह्य वस्तुओं का संयोग होता है तथा उनके निमित्त से पुनः सुख-दुःख होते हैं एवं इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होता है। इस तरह भाव पुण्य-पाप तथा द्रव्य पुण्य-पाप का सहज सम्बन्ध बनता रहता है।
गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि ह्न 'पूर्व के प्रारब्ध कर्म के फल में बाहर में इष्ट-अनिष्ट विषयों के संयोग होते हैं।
भाई! उन्होंने पूर्व में जैसे शुभाशुभ परिणाम किए, वैसा कर्मबंध किया है, उसका उदय होने पर बाह्य इष्ट-अनिष्ट सामग्री मिलती है। उसमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना तो जीव ने अपने अज्ञान से अपने उदय के
पुण्य-पाप पदार्थ (गाथा १३१ से १३४)
४०७ अनुसार की; परन्तु जो सामग्री मिली, वह तो पूर्व कर्म के निमित्त से मिली है।
वर्तमान में जो मूर्त सामग्री मिली, उसके कारण रूप कर्म भी मूर्त हैं। यहाँ कर्मों को मूर्तिक सिद्ध करना है। पूर्व का पुण्य तो पुण्य के फल में बाह्य मूर्त सामग्री का संयोग मिलता है; परन्तु चैतन्य की शान्ति उसमें से नहीं मिलती। जड़कर्मों का फल तो जड़ में ही आता है। तथा चैतन्य की शान्ति का फल चैतन्य के स्वरूप में से आता है।" ___ मूर्त इन्द्रियाँ आत्मा के विषयों को भोगती हैं। यह उपचार से किया कथन है। वस्तुतः आत्मा पर को नहीं भोगता । यहाँ तो इतना बताने का प्रयोजन है कि कर्म मूर्त हैं और उनका फल भी मूर्त में ही आता है।
इसप्रकार यहाँ कहा है कि ह्न वस्तुतः अमूर्तिक, शुद्ध, चिदानन्द आत्मा ही उपादेय हैं, इसकी श्रद्धा-ज्ञान और इसी में एकाग्रता करना ही शान्ति का उपाय है।
गंभीर, विचारशील और बड़े व्यक्तित्व की यही पहचान है कि वे नासमझ और छोटे व्यक्तियों की छोटी-छोटी बातों से प्रभावित नहीं होते, किसी भी क्रिया की बिना सोचे-समझे तत्काल प्रतिक्रिया प्रगट नहीं करते। अपराधी पर भी अनावश्यक उफनते नहीं हैं, बड़बड़ाते नहीं हैं; बल्कि उसकी बातों पर, क्रियाओं पर शान्ति से पूर्वापर विचार करके उचित निर्णय लेते हैं, तदनुसार कार्यवाही करते हैं, और आवश्यक मार्गदर्शन देते हैं।
धर्मेश के समक्ष अपने धार्मिक अज्ञान और नास्तिकता का परिचय देते हये अमित ने जो भाषणबाजी की. उसके उत्तर में धर्मेश ने अधिक कछ न कह कर अमित से बड़ी ही शालीनता से मात्र बातों पर विचार करने के लिये कहा।
- इन भावों का फल क्या होगा, पृष्ठ-३८
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१. श्रीगुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९९, दि. ७-५-५२ के पूर्व, पृष्ठ-१५८८