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पञ्चास्तिकाय परिशीलन यहाँ पंचास्तिकाय में जीव स्वयं कैसा है ह्न यह बतलाते हैं । चैतन्य की अस्ति में राग-द्वेष, हर्ष-शोक के परिणाम होते हैं, इसलिए वे जीवास्तिकाय के अस्तित्व को बतलाते हैं। कर्म रागादि करते हैं या निमित्त के कारण रागादि होते हैह्र ऐसा माननेवाले को पर्यायदृष्टि छोड़कर स्वभाव दृष्टि करने का अवसर नहीं रहता।
यह शुद्ध-अशुद्ध जीव का सामान्य लक्षण हुआ। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना अशुद्ध जीव का लक्षण है और ज्ञानचेतना शुद्ध जीव का लक्षण है। यहाँ अस्तिकाय का वर्णन है।अतः यदि कर्मरूप पुद्गलास्तिकाय के कारण जीवास्तिकाय में शुद्ध या अशुद्ध परिणमन माना जाए तो जीवास्तिकाय का अस्तित्व नहीं रहता। इसलिए ऐसा माननेवाला जीवास्तिकाय को नहीं पहिचानता । ज्ञान में एकाग्र होना, राग में एकाग्र होना अथवा हर्ष-शोक में एकाग्र होना स्वयं के कारण जीवास्तिकाय में होता है, चारित्रमोह के कारण नहीं। उसे चारित्रमोह के कारण होता है ह्र ऐसा माननेवाले को जीवास्तिकाय की यथार्थ श्रद्धा नहीं है।
ज्ञानावरणी कर्म के कारण जीव में अल्पज्ञान होता है ह ऐसा है ही नहीं। ज्ञान की हीनता स्वयं के कारण होती है ह ऐसा जाने तो 'आत्मा पर से भिन्न है और पर्याय में जो रागादि होते हैं, वे आत्मा के स्वभाव नहीं हैं ह ऐसी द्रव्यदृष्टि होती है।
अब उपयोग लक्षण कहते हैं। जो चैतन्यभाव की परिणतिरूप प्रवर्ते वह उपयोग है। वह उपयोग आत्मा का गुण है; क्योंकि वह आत्मा की स्वयं की योग्यता से होता है, कर्म के कारण नहीं। उसे पुद्गल से हुआ मानने पर पुद्गलास्तिकाय से जीवास्तिकाय का अस्तित्व है ह ऐसा प्रसंग आता है; परन्तु ऐसा नहीं है। आत्मा स्वयं उपयोगरूप प्रवर्तता है। पाँच इन्द्रियाँ और मन हैं, इसलिए उपयोग है ह्र ऐसा नहीं; अपितु चैतन्यभाव की परिणति ही उपयोग है; जिसके द्वारा जीव ज्ञात होता है।
इसप्रकार जीव का लक्षण चेतना और उपयोग है। यहाँ इनको गुण गिनने का कारण यह है कि ये दोनों अपनी शक्ति के कारण से हैं।
जीव का कभी नाश-उत्पाद नहीं होता (गाथा १ से २६)
७३ अब पर्याय की बात करते हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने मूल गाथा में अशुद्धपर्याय की बात की है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने शुद्ध पर्याय की बात भी साथ ही की है। जिसप्रकार आत्मा में चेतना और उपयोग गुण शुद्ध
और अशुद्ध है, उसीप्रकार पर्याय के भी शुद्ध और अशुद्ध प्रकार हैं। जो अगुरुलघु गुण की षट्गुण हानिवृद्धिरूप शुद्ध पर्यायें हैं।
परद्रव्यों के संबंध से चारगतिरूप नर-नारकादि की व्यंजनपर्यायें अशुद्धपर्यायें हैं। वे देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यंच की पर्यायें आत्मा में होती हैं, अत: वे आत्मा के भाव हैं; कर्म के नहीं। नर-नारकादि शरीर के कारण भी वे पर्यायें नहीं होती। आत्मा की वे अशुद्ध व्यंजनपर्यायें जीवास्तिकाय को बतलाती हैं। जीव अपनी योग्यता से चींटी, हाथी, सिंह आदि के शरीर में है, जीव स्वयं उस आकाररूप होते हैं। नरक में जाने पर यह होनेवाला देहप्रमाण आकार जीव का है।
यहाँ स्थूल ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से दीर्घकाल तक रहनेवाली नारकी आदि पर्यायों को पर्याय कहा है। नारकी से मनुष्य हो, मनुष्य से देव हो अथवा मनुष्य से तिर्यंच हो ह्र इसप्रकार पर्याय बदलती है, उसको यहाँ स्थूल पर्याय की अपेक्षा से व्यंजनपर्याय कहा है। वह पर्याय जीव की है; क्योंकि उसके आकाररूप जीव होता है, कर्म या शरीर नहीं होता।"
इसप्रकार इस गाथा में शुद्धाशुद्ध पर्यायों के पिण्ड को द्रव्य प्रसिद्ध करते हुए जीव द्रव्य का स्वरूप दर्शाया गया है। जीवद्रव्य के लक्षणों को परिभाषित करते हुए चेतना और उपयोग के भेद-प्रभेदों की चर्चा करके उन्हें जीव का लक्षण प्रसिद्ध किया है तथा निमित्तों को अत्यन्त गौण करते हुए जीव को स्वयं की योग्यता से प्रसिद्ध किया है। साथ ही समयसार के दृष्टिप्रधान कथन से भिन्न इसे ज्ञानप्रधान कथन बतलाया है।
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१.श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. ११०, पृष्ठ ९००, दिनांक ९-२-५२