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पञ्चास्तिकाय परिशीलन अपने कारण होते हैं, पर के कारण नहीं। राग-द्वेष चैतन्य की सत्ता में होते है। __ अनेक जीव ऐसे हैं कि जिन्हें विशेषतः ज्ञानावरणादि कर्मों का उदय है। उन्हें स्वयं को परिपूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगट होना चाहिए, परन्तु उन्हें स्वयं के ज्ञान वरण आदि कर्म के उदय में अपनी पर्यायगत योग्यता के कारण प्रगट नहीं हो रहा है। उसमें ज्ञानावरण कर्म का उदय तो कारण है ही, परन्तु वे तो निमित्तमात्र हैं। अपना दृष्टास्वभाव परिपूर्ण प्रगट नहीं करने में दर्शनावरण कर्म निमित्त है। अपना वीर्य स्फुरित नहीं करने में अन्तराय कर्म निमित्त है। अपने स्वरूप की असावधानी में मोहनीय कर्म निमित्त है। इन कर्मों के निमित्त से अपने ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुखादि हीनदशारूप अथवा विपरीतरूप परिणमित होते हैं।
यदि जीव यह जाने कि पर्याय में होनेवाले राग-द्वेष अथवा हर्षशोक मेरे मूल स्वभाव में नहीं है और शुद्ध चैतन्य की उपादेयरूप श्रद्धा करे तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट होते हैं।" ___ इसप्रकार इस गाथा में तीनप्रकार की चेतना की बात कहकर यह बताया है कि स्थावर एकेन्द्रिय जीवों के कर्मफल चेतना ही प्रधानरूप से रहती है और वे उस स्थिति में हर्ष-शोक का वेदन करते हैं तथा त्रस जीवों में कर्मचेतना की मुख्यता है, उन्हें इष्टानिष्टपने के वेदन से राग-द्वेष के परिणाम होते हैं तथा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के चौथे गुणस्थान से छद्मस्थावस्था में पर्यन्त भूमिकानुसार ज्ञानचेतना रहती है; परन्तु इस बात को गौण करके तीसरे भेद में अरहंत व सिद्धावस्था में पूर्णरूपेण ज्ञान चेतना होती है यह बात यहाँ दर्शाई है।
गाथा-३९ विगत गाथा में कर्मफल चेतना, कर्मचेतना एवं ज्ञानचेतना के स्वरूप का कथन है, अब प्रस्तुत गाथा में उन चेतनाओं के स्वामी कौन-कौन है, यह कथन करते हैं। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कजजुदं। पाणित्तमदिक्कंता णाणं विदंति ते जीवा ।।३९।।
(हरिगीत) थावर करमफल भोगते, अस कर्मफल युत अनुभवें। प्राणित्व से अतिक्रान्त जिनवर वेदते हैं ज्ञान को।।३९|| सर्व स्थावर जीव समूह वास्तव में कर्मफल को वेदते हैं। त्रस वास्तव में कार्य सहित कर्मफल को वेदते हैं और जो प्राणों का अतिक्रम कर गये, वे केवलज्ञानी ज्ञान को ही वेदते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में यह कहते हैं कि कौन क्या चेतता है ? ध्यान रहे, यहाँ ! चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है और वेदता है ह ये सब कथन एकार्थवाचक हैं। स्थावर जीव कर्मफल को चेतते हैं, त्रस जीव कार्य (कर्म) को चेतते हैं और केवलज्ञानी ज्ञान को चेतते हैं।
भावार्थ यह है कि पाँचप्रकार के स्थावर जीव अव्यक्त सुख-दुखानुभव रूप शुभाशुभ कर्मफल को चेतते हैं। द्वीन्द्रियादि त्रस जीव उसी कर्मफल को इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कार्य सहित चेतते हैं तथा परिपूर्ण ज्ञानवन्त भगवन्त अनन्त सौख्य सहित ज्ञान को ही चेतते हैं।
आचार्य जयसेन कहते हैं कि - निर्मल, शुद्धात्मानुभूति के अभाव से उपार्जित प्रकृष्टतर मोह से मलीमस चेतकभाव द्वारा प्रच्छादित सामर्थ्यवाली होती हुई स्थावर जीव राशि कर्मफल का वेदन करती है। त्रस जीवराशि उसी चेतक भाव से सामर्थ्य प्रगट हो जाने के कारण
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१.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३४, पृष्ठ १०५१, दिनांक ४-३-५२