Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 202
________________ ३८६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन जानने-देखने की क्रिया का कर्ता जीव स्वयं ही है। आत्मा ज्ञानदर्शन क्रिया से तन्मय है तथा शरीरादि की क्रिया से तन्मय नहीं है। पर का मेरे साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है। इसप्रकार पर से भेदज्ञान करके अन्तर्मुख स्वभाव के अवलम्बन से ही शान्ति प्राप्त होती है। __ज्ञान क्रिया के साथ आत्मा तन्मय है। जैसे आकाश के साथ ज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं है, उसीप्रकार अजीव-पुद्गल के साथ भी ज्ञान का सम्बन्ध नहीं है। ज्ञान तो आत्मा के साथ एकमेक है ह्र ऐसा समझे तो ज्ञान में पराश्रय की बुद्धि नहीं रहती। बारह भावना में कहा है कि पुण्य-पाप आस्रव हैं तथा वह आस्रव की क्रिया मोक्षमार्ग में निमित्त नहीं है। छह द्रव्यों में एक जीव द्रव्य ही ज्ञान की क्रिया है, इससे वह ज्ञान की क्रिया के द्वारा ही जीव को अन्य समस्त द्रव्यों से जुदी पहचान कराता है। जीव में ही सुख की इच्छा होती है। अजीवों को तो सुख एवं उसकी इच्छा होती ही नहीं है; क्योंकि सुख नाम का गुण जीव में ही होता है। जानने-देखने रूप ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव की क्रिया का कर्ता जीव स्वयं है। पर के कारण जीव में जानने-देखने की क्रिया नहीं होती। निमित्तों के कारण ज्ञान नहीं होता। ज्ञाता-दृष्टा रहना जीव का स्वयं का स्वभाव है। साता ज्ञान-दर्शन क्रिया के साथ तन्मय है।" इसप्रकार उक्त कथन का सार यह है कि ह ज्ञान दर्शन सुख-दुःख शुभ-अशुभ एवं हर्ष-शोक आदि क्रियाओं का कर्ता संसारी जीव ही है। ऐसी पहचान करके जीव-अजीव का भेदज्ञान करना ही धर्म है। गाथा -१२३ विगत गाथा में अन्य अजीव द्रव्यों से असाधारण जीवद्रव्य का कथन किया है। प्रस्तुत गाथा में जीव द्रव्य का उपसंहार एवं अजीव द्रव्य प्रारंभ करने की चर्चा है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जएहिं बहगेहिं। अभिगच्छदु अज्जीवं णणंतरिदेहिं लिंगेहिं।।१२३।। (हरिगीत) पूर्वोक्त अनेक प्रकार से इस तरह जाना जीव को। जानो अजीव पदार्थ अब जड़ चिन्ह की पहचान से||१२३|| पूर्वोक्त प्रकार से अन्य भी बहुत सी पर्यायों द्वारा जीव को जानकर अब ज्ञान से अन्य जड़ लिंगों द्वारा अजीव को जानो । ____ आचार्य अमृतचन्द टीका में कहते हैं कि ह्र व्यवहारनय से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणा स्थान आदि द्वारा विस्तारपूर्वक कही गई भेदरूप पर्यायों द्वारा तथा निश्चयनय से मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण शुद्ध चैतन्यपरिणमन की बहु पर्यायों द्वारा जीव को जाना। इसप्रकार जीव को जानकर, अगली गाथाओं में उल्लिखित अचेतन स्वभाव के कारण ज्ञान से भिन्न अर्थात् जड़रूप कहे जानेवाले चिन्हों द्वारा भेद विज्ञान के लिए जीव से संबद्ध या असंबद्ध अजीव को जानो। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा ) एसैं बहुपर्याय-गत, जीव पदारथ जानि । सकल अचेतन चिन्ह गत, सब अजीव पहचान।।६७।। (202) १. श्रीगुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९२, दि. ३-५-५२, पृष्ठ-१५४७

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