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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
(सवैया इकतीसा )
ऐसें विवहार करि जीवठान गुणठान, मारगना आदि भेद, जीवरूप कहे हैं । निहचे हैं राग-द्वेष- मोह परिनाम नाना,
रूप सो असुद्ध जीव लोक माहिं रहे हैं ।। सुद्ध हिचे सौं सुद्ध सिद्ध पर्याय रूप,
भूप छहौं द्रव्य विषै मोह थान गहे हैं। जीव तैं अजीव विपरीत रूप आगै अब,
कहैं हैं मुनीस जातैं आप पर लहे हैं।।६९।। (दोहा)
सकल वस्तु इहलोक में, जीव अजीव विथार । जीव कथन पूरा भया, कहत अजीव विचार ।। ७० ।। कवि हीरानन्दजी के उपर्युक्त काव्यों में जो कहा गया; उसका सार यह है कि ह्न व्यवहारनय से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि जीव के भेद कहे हैं तथा अशुद्ध निश्चयनय से राग-द्वेष-मोहरूप अनेक अशुद्ध जीव लोक में हैं। शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध सिद्ध पर्याय रूप हैं।
इस लोक में जीव- अजीव का ही विस्तार है। यहाँ तक जीव का कथन पूरा हुआ। अब आगे अजीव की चर्चा करेंगे।
इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने प्रवचन में कहा है कि ह्न इसप्रकार अनेक पर्यायों से आत्मा को जानकर ज्ञान से भिन्न स्पर्श, रस, गंध, वर्णादि चिन्हों से पुद्गलादि पाँच अजीव द्रव्यों को जानो ।
ज्ञान-दर्शन आदि से जीव को अन्य अजीव द्रव्यों से भिन्न जानना तथा गुणस्थान, जीवस्थान आदि जीव की अन्य पर्यायों से भी जीवतत्त्व को भिन्न जानना चाहिए।
देखो, समयसार, नियमसार आदि में जीव के अखण्ड स्वभाव की अधिकता बताने के लिए गुणस्थान जीवस्थान आदि को जहाँ अजीव का
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जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३ )
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परिणाम कहा है, वहाँ पर्याय को गौण करके द्रव्यदृष्टि का विषय बताया है। और यहाँ तो अजीव द्रव्यों से भिन्नता बताने के लिए गुणस्थान आदि जीव की पर्यायों से जीव की पहचान कराई हैं। मिथ्यात्वादि १४ गुणस्थान जीव की पर्याय में होते हैं। वे अजीव के कारण नहीं हैं। त्रिकाली स्वभाव की दृष्टि कराने के लिए उन्हें कर्मजनित कहा है, परन्तु वहाँ तो पर्याय को अन्तर्मुख करके अभेद स्वभाव बताने का अभिप्राय है। यदि पर्याय को ही पराधीन-कर्म के आधीन मान ले तो अन्तर्मुख होकर अभेद स्वभाव की दृष्टि कैसे करेगा; क्योंकि अभेदस्वभाव को दृष्टि में लेने वाली तो पर्याय है। जिसने उसे पर्याय को ही पर के कारण माना, वह जीव पर्याय को अन्तर स्वभाव के सन्मुख नहीं कर सकता। इसलिए नक्की करना चाहिए कि जीव की जितनी पर्यायें हैं, वे सभी जीव के स्वयं के कारण ही हैं। "
इसप्रकार यद्यपि इस गाथा में अजीव द्रव्य की पहचान कराने का संकल्प किया है तथा कहा है कि ह्न पिछली गाथाओं में जीव का व्याख्यान विस्तार से हो चुका है, तथापि गुरुदेवश्री को जीवों के कल्याण की भावना विशेष रहती है, अतः उन्होंने अपने व्याख्यान में समयसार, नियमसार आदि का उल्लेख कर कहा कि जीव के अखण्ड स्वभाव बताने के लिए गुणस्थान, जीवस्थान आदि को जहाँ अजीव का परिणाम कहा है वहाँ पर्याय को गौण करके द्रव्यदृष्टि से बताया है और यहाँ इस गाथा में अजीव द्रव्यों से भिन्नता बताने के लिए गुणस्थान आदि को जीव की पहचान कराई है ।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९३, दि. ३-५-५२ के आगे, पृष्ठ- १५४९