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गाथा - १२५
विगत गाथा में आकाशादि में अजीत्व का हेतु दर्शाया गया है।
प्रस्तुत गाथा में अचेतनत्व को ही अनेक हेतुओं से सिद्ध किया है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न
सुहृदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं ।
जस्स ण विज्जदि णिच्चं तं समणा बेंति अज्जीवं । । १२५ ।। (हरिगीत)
सुख-दुःख का वेदन नहीं, हित-अहित में उद्यम नहीं ।
ऐसे पदार्थ अजीव है, कहते श्रमण उसको सदा ॥ १२५ ॥
जिन द्रव्यों में सुख-दुःख का ज्ञान नहीं होता, हित का उद्यम और अहित का भय नहीं होता, उसे अजीव कहते हैं ।
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं कि ह्न “आकाशादि को सुखदुःख का ज्ञान नहीं है, हित का उद्यम और अहित का भय कभी नहीं होता, इसलिए आकाशादि अजीवों में चैतन्य सामान्य विद्यमान नहीं हैं।
तात्पर्य यह है कि जिसे चेतनत्व विशेष नहीं है, उसे चेतनत्व सामान्य कहाँ से होगा; क्योंकि जहाँ चेतनत्व सामान्य होता है, वहीं चेतनत्व विशेष होता है।
कवि हीरानन्दजी इसी बात को काव्य में कहते हैं (दोहा)
सुख-दुःख जानपना सुहित, जतन अहित भय भाव । जाकै इनमें कुछ नहीं, सो अजीव जड़ भाव ।। ७४ ।। ( सवैया इकतीसा )
जैसें चेतनासरूप जीव लोक माहिं कहा,
सुख माहिं सुखी होड़ दुख माहिं दुखिया ।
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अजीव पदार्थ (गाथा १२४ से १३० )
तैसैं नभ आदि पाँचौं द्रव्य जड़जाति कहे,
पर आप जानै नाहिं नाहिं दुखी सुखिया ।। हितक बढ़ावै सदा अहितको बढ़ावै है,
जैसे जीव तैसें कहा नभ आदि रुखिया । तातैं इन पाँचौं माहिं चेतनासरूप नाहिं,
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चेतनासरूप जीव आपै मोख सुखिया ।। ७५ ।। (दोहा)
सुख-दुःख जानै जीव सब, सुख-दुःख रूप न जीव । पुग्गल सुख-दु:ख पिण्ड है, जड़ता रूप सदीव ।। ७६ ।। चेतन द्रव्य में चेतना अर्थात् ज्ञान दर्शन होते हैं, सुख-दुख का वेदन
होता है, वैसे ज्ञानदर्शन व सुख-दुःख का वेदन आकाश आदि अजीव द्रव्यों में नहीं होता।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्न “जिन द्रव्यों में सुख-दुःख आदि वेदन करने की, इष्ट-अनिष्ट आदि किसी भी पदार्थ को जानने की योग्यता ही नहीं हैं, वे अजीव पदार्थ हैं। शरीर के अंग- आँख, नाक, कान एवं रसना में हिताहित तो क्या जानने की योग्यता ही नहीं है, अतः ये भी अजीव हैं। जानने वाली उक्त इन्द्रियाँ नहीं, बल्कि शरीर में रहनेवाला ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्मा है। इससे ज्ञात होता है कि इन्द्रियाँ भी जड़ हैं, चेतना रहित हैं।"
इस प्रकार अजीव द्रव्य की यह पहचान कराई कि वे सब अजीव हैं। जिनमें ज्ञान - दर्शन रूप चेतना गुण नहीं हैं।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९४, दि. ५-५-५२, पृष्ठ १५६२