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पञ्चास्तिकाय परिशीलन खेंचकर पुतली को नचाता है, उसीतरह कर्मरूपी डोरी के खिंचने से संसारी जीव नाचते हैं, परन्तु उसकी यह मान्यता भूलभरी है।
अज्ञानी की भूल का ज्ञान कराते हुए कहा है कि जीव अपनी भूल से ही अनेक विभाव पर्यायें धारण करके संसार में परिभ्रमण करता है। कहा भी है ह्र 'अपने को आप भूलकर हैरान हो गया।' किसी कर्मादि ने हैरान किया नहीं है; क्योंकि कर्म तो जड़ हैं, वे परिभ्रमण कराते नहीं हैं। इसलिए जीव कर्मों के कारण हैरान नहीं होता। ___ 'स्वयं के अज्ञान के कारण ही जीव का स्वतंत्र रूप से विभाव रूप परिणमन होता है।' ह्न जब ऐसा जाने तब स्वभावरूप होने की योग्यता प्रगट होती है तथा तभी मुक्ति का मार्ग खुलता है।
जिसतरह आत्मा भूल करने में प्रभु है उसीप्रकार धर्म करने में भी प्रभु है। अपने ज्ञानानन्द स्वभाव की रुचि करके उसमें रमणता करना धर्म है। अनुकूल शरीर व उत्तम संहनन से धर्म नहीं होता।
जब आत्मा स्वयं अपना स्वभाव भूलकर अपने में अपराध करता है तब कर्म को निमित्त कहा जाता है। पुण्य-पाप दोनों दोष हैं, वे आत्मा के गुण नहीं है। जो जीव पुण्य से तथा शरीर से धर्म मानता है, वह चार गति में परिभ्रमण करता है।
आत्मा की वर्तमान पर्याय की योग्यता से भूल होती है, पर पदार्थ से भूल नहीं होती। पर पदार्थों का तो आत्मा में अभाव है।" । ___ सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि ह्र जीव अनादि से अविद्या रूप से परिणमन कर रहा है। ज्ञानावरणादि जड़कर्मों का उदय जड़ में है। कर्म विकार कराता नहीं है। स्वयं अपने स्वभाव की प्रभुता को भूला हुआ है
और अज्ञान भाव से परिणम रहा है तो ऐसी स्थिति में कर्म के उदय को निमित्त कहा जाता है। इसप्रकार जीव द्रव्य निश्चय से राग-द्वेष का एवं निमित्त रूप से कर्म का कर्ता-भोक्ता होता है।
गाथा -७० विगत गाथा में कहा है कि ह्र अज्ञानी जीव अपने ज्ञानावरणादिक कर्मों के उदय से कर्ता-भोक्ता होता हुआ मोहाच्छादित होकर अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है। __ अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र सम्यग्दृष्टि जीव गुणस्थान परिपाटी के क्रम से मोक्षमार्ग को प्राप्त कर मोह का उपशम तथा क्षय करके अनंत आत्मीक सुख का भोक्ता होता है । मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि धीरो।।७।।
(हरिगीत) जिन वचन से पथ प्राप्त कर उपशान्त मोही जो बने। शिवमार्ग का अनुसरण कर वे धीर शिवपुर को लहें।।७०|| जिस पुरुष ने जिन वचनों द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त करके तथा दर्शनमोह के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम को प्राप्त करके सम्यग्ज्ञान प्रगट किया है, वह पुरुष शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है।
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र “यह कर्मवियुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्वगुण का व्याख्यान है। जब यही आत्मा जिनाज्ञा द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त करके उपशान्त मोहपने एवं क्षीणमोहपने के कारण विपरीताभिनिवेश नष्ट हो जाने पर सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है तथा कर्तृत्व
और भोक्तृत्व के अधिकार को समाप्त करके सम्यक्प से प्रभुत्व शक्तियुक्त होता हुआ सम्यग्ज्ञान का अनुशरण करनेवाले मार्ग से विचरता है, तब वह विशुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धिरूप मोक्षपुर को प्राप्त करता है।
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१. श्री प्रवचन प्रसाद नं. १५८, के चार पृष्ठ आगे दि. १९-३-५२, भावार्थ पृष्ठ १२५८-५९