Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ ३६८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन कालका निमित्त पाय आप और आन मानी, अपने सरूप होई श्रीजिनेस साखी है ।।४४ ॥ (दोहा) जब सरूपकी दृष्टि है, तब पररूप न कोइ । परकै सब परहरनतैं, रहि निरूप-पद सोइ ।। ४५ ।। कवि कहते हैं कि ह्न डांस, मक्खी, मच्छर, भौंरा, पतंगा आदि चार इन्द्रिय जीव, पाँचवीं इन्द्रिय व मन बिना आत्मा के आनन्द रहित मात्र स्पर्श, रस, गंध और रूप के विषय को ही ग्रहण करने के अभिलाषी रहने से चौइन्द्रिय नामकर्म बांधते हैं। उसके उदय में चारों इन्द्रिय के स्वाद में उलझे रहते हैं। कभी समय पाकर जब स्वरूप की दृष्टि प्राप्त होती है तो पर की प्रवृत्ति को छोड़कर स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “डांस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, पतंगा आदि जीव रूप-रस-गंध व स्पर्श को जानते हैं । अतः वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं। जीव के क्षयोपशम के लिए इन्द्रियों के परमाणुओं को आना पड़े ऐसी पराधीनता नहीं है। आत्मा जड़ इन्द्रियों का कर्त्ता नहीं है। जैसेजैसे एक - एक इन्द्रियों का क्षयोपशम बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ही एकएक इन्द्री बढ़ती जाती है। ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । जयसेनाचार्य श्री टीका का उल्लेख करते हुए गुरुदेव कहते हैं कि जीवों को अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप की पहचान करके निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान भावना से सुख सुधारस पान करना चाहिए; किन्तु आत्मा का भा नहीं होने से जीवों को अपने सुख सुधारस का पान नहीं हो पाता तथा स्पर्श, रस, घ्राण व चक्षु आदि के विषय में सुखभान कर वे विकारी सुख को भोगते हैं। इस कारण चतुरिन्द्रिय नामकर्म का उपार्जन करता है और चौइन्द्रिय पर्याय में उत्पन्न होता है।" • १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९०, दि. ३०-४-५२ पूर्व दिन, पृष्ठ- १५३२ ( 193 ) गाथा - १९७ विगत गाथा में चतुरिन्द्रिय जीवों के प्रकार बताये। अब प्रस्तुत गाथा में पंचेन्द्रिय जीवों के प्रकार बताते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र सुरणरणारयतिरिया वण्णरसफ्फासगंधसद्दण्हू | जलचरथलचरखचरा बलिया पंचेंदिया जीवा । । ११७ । । (हरिगीत) भू-जल गगनचर सहित जो सैनी असैनी जीव हैं। सुर-नर-नरक तिर्यंचगण ये पंच इन्द्रिय जीव हैं ।। ११७॥ वर्ण, रस, स्पर्श, गंध और शब्द को जाननेवाले देव मनुष्य तिर्यंच और नारक 'जलचर, थलचर और नभचर होते हैं, वे पंचेन्द्रिय जीव हैं। आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम के कारण तथा मन के आवरण का उदय होने से मन रहित एवं स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द को जानने वाले जीव पंचेन्द्रिय होते हैं और कुछ पंचेन्द्रिय जीव मन के आवरण का क्षयोपशम होने से मन सहित होते हैं। उनमें देव, मनुष्य व नारकी मन सहित ही होते हैं। तिर्यंच मन सहित व मन रहित दोनों प्रकार के होते हैं।" इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र ( दोहा ) सुर-नर- नरक - तिरिय गति, इन्द्रिय विषय प्रधान । जलचर- थलचर- खचर सब, पंचेन्द्रिय बलवान ॥ ४६ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264