________________
गाथा - ११८ विगत गाथा में पंचेन्द्रिय जीवों के विषय बताये हैं। तथा जो इन विषयों रत रहते हैं, वे संसार में ही डोलते हैं - यह कहा है।
प्रस्तुत गाथा में देवों के चार निकायों की तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों, मनुष्यों के भेदों की चर्चा है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
देवा चउण्णिकाया मणुया पुण कम्मभोगभूमीया। तिरिया बहुप्पयारा णेरइया पुढ़विभेयगदा।।११८।।
(हरिगीत) नर कर्मभूमिज भोग भूमिज, देव चार प्रकार हैं। तिर्यंच बहुविध कहे जिनवर, नरक सात प्रकार हैं।।११८||
देवों के चार निकाय हैं, मनुष्य कर्मभूमिज एवं भोगभूमिज - ऐसे दो प्रकार के हैं। तिर्यंच अनेक प्रकार के हैं और नारकी के भेद उनकी पृथ्वियों के अनुसार हैं।
टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र यहाँ इन्द्रियों के भेदों की अपेक्षा से जीवों का चतुर्गति सम्बन्ध दर्शाते हुए विषय का उपसंहार किया है।
देवगति नामकर्म और देवायुकर्म के उदय के निमित्त से देव होते हैं। वे ह्न भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ह ऐसे निकाय (समूह) के भेदों के कारण चार प्रकार के हैं। मनुष्यगति नामकर्म और मनुष्य आयु के उदय में मनुष्य होते हैं। वे कर्मभूमिज और भोगमिज के भेद से दो प्रकार के होते हैं। तिर्यंचगति नामकर्म व तिर्यंच आयु कर्म के उदय में तिर्यंच होते हैं। वे पृथ्वी, लट, नँ, डांस, जलचर, उरग पक्षी, सर्प तथा । चौपाये पशु इत्यादि भेदों के कारण अनेक प्रकार के होते हैं। इसीप्रकार
जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३)
३७३ नरक आयु नामकर्म व नरक आयु कर्म के उदय में नारक होते हैं। वे रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमप्रभा ह्र ऐसे भेदों के कारण सात प्रकार के होते हैं। उनमें देव, मनुष्य व नारकी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
(दोहा) चतुर निकाई देव हैं, करम-भोग नर भेद। तिरजग बहुत प्रकार हैं, नारक भूगत छेद।।५० ।।
(सवैया इकतीसा) देवगतिनाम देव-आयु-कर्मउदै सेती,
देवरूप धारी जीव चतुरनिकाय है। नरगतिनाम नर-आयु-उदै भये जीव,
करम वा भोगभूमिविर्षे उपजाय है ।। पसूगति पसू-आयु-उदै पाय मही आदि,
पाँचौं इंद्री विषै भेद बहुधा कहाय है। नरकगति नरक-आयु-उदै सात भूमि, डोलै जैन बिना कहौ कैसैंकै रहाय है।।५१।।
(दोहा) चारों गति ए कुगति हैं, पर गति अगति मिलाप । इन गति विगति जुगतिलसै, सोगति सिवगति आप।।५२।। जिन सिवगति की गति लखी, तिन गतिलखी समस्त।
भव-गति गति मैं जे परे, ते भव-गत सुख अस्त।।५३।। उपर्युक्त पद्यों में कवि कहते हैं कि ह्नदेवगति नामकर्म एवं देवायु कर्म के उदय से जीव चतुर्निकाय के देवों में उत्पन्न होते हैं। मनुष्य तथा तिर्यंच गति में बहुत प्रकार है एवं एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पशु सब तिर्यंचगति वे जीव हैं। गति में कर्म भूमिज और भोग भूमिज होते हैं, तथा नरक गति व नरक आयु