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पञ्चास्तिकाय परिशीलन देहधारी हैं तथा सिद्ध जीव देहरहित होते हैं। जो शुद्ध होने योग्य है व भव्य हैं, जो कभी सिद्ध नहीं होते हों अभव्य जीव हैं।
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी इस गाथा पर प्रवचन करते हुए कहते हैं कि ह्न ‘मैं आत्मा ज्ञाता द्रव्य हूँ' ऐसे भानपूर्वक जो अन्तर में शान्ति व आनंद प्रगट होता है, वह धर्म है तथा इससे विपरीत जिसे संयम का सेवन कष्टदायक लगता है, वह अधर्म है। अज्ञानी जीव चारित्र को 'दुःखदायक मानते हैं तथा 'ऐसा मानते हैं कि मैं पर पदार्थ का अनुभव करता हूँ, जबकि वह परपदार्थ नहीं' बल्कि पर पदार्थ के प्रति अपने राग का ही अनुभव करता है।
आत्मा के भानपूर्वक राग पर से दृष्टि उठाकर जो रागरहित आत्मा का वेदन करता है, वह धर्म है। आत्मा का स्वभाव तीनलोक व तीन काल के पदार्थों को जानने का है ह्र जो ऐसी पहचान करता है, वह भव्य है। "
इसप्रकार यदि हम स्व-पर को अर्थात् अपने आत्मा को जानें, पहचानें उसी में जमने की सामर्थ्य जानें, उसी में जम जायें; रम जायें तो परमात्मा बन सकते हैं।
१. श्री सद्गुरु प्रसाद नं. १९२, दि. ९ ५-५२, पृष्ठ- १५४४:
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गाथा - १२१
विगत गाथा में कहा है कि ह्न जीवों को देवत्वादि की प्राप्ति में पौद्गलिककर्म निमित्तभूत हैं, इसलिए देवत्वादि जीव का स्वभाव नहीं हैं। प्रस्तुत गाथा में व्यवहार जीवत्व के एकांत की मान्यता का खण्डन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता । जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवेंति । । १२१ । ।
(हरिगीत)
इन्द्रियाँ नहिं जीव हैं षट्काय भी चेतन नहीं ।
है मध्य इनके चेतना वह जीव निश्चय जानना || १२१ ||
व्यवहार से कहे जाने वाले एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायादि जीवों में इन्द्रियाँ जीव नहीं हैं और पांच स्थावरकाय और एक त्रसकाय ये छहप्रकार की शास्त्रोक्त कायें भी जीव नहीं है। उनमें जो ज्ञान है, वह जीव है। ज्ञानी ऐसी प्ररूपणा करते हैं।
आचार्य श्री अमृतचन्द कहते हैं कि ह्न “यह व्यवहार जीवत्व के एकांत की मान्यता का खण्डन है। (जिसे मात्र व्यवहारनय से जीव कहा जाता है, उसका वास्तव में जीवरूप से स्वीकार करना उचित नहीं है।)
ये जो एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायादि 'जीव' कहे जाते हैं, वे अनादि जीव- पुद्गल का परस्पर अवगाह देखकर व्यवहारनय से 'जीव' कहे जाते हैं। निश्चयनय से उनमें स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी आदिकायें जीव के लक्षण ह्न चैतन्यस्वभाव के अभाव के कारण जीव नहीं है। उन्हीं में जो स्व पर प्रकाशक ज्ञान है, उसे ही गुण गुणी के अभेद की अपेक्षा जीव कहा जाता है।