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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
कर्म के उदय से जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं। जैनधर्म जाने बिना ये जीव अनादि से जन्म-मरण कर रहे हैं।
इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न देवगति, नामकर्म के उदय से देव का शरीर मिलता है। वे चार प्रकार के हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ।
आत्मा स्वभाव से तो सिद्ध समान है। चार गति से विलक्षण चैतन्यस्वभावी जिसका लक्षण है। ऐसी आत्मा के भान बिना जीव चतु भ्रमण करता है। शुभभाव के फल में देवरूप में उत्पन्न होता है।
जो जीव अपने स्वभाव से चूककर मनुष्यगति के लायक शुभभाव करे तो मनुष्य होता है । तिर्यंचगति के जीव एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पशु तक होते हैं। जो जीव अपने स्वभाव से चूककर कपट एवं दम्भ करते हैं, उसके फल वे पशु होते हैं, जिनका शरीर आड़ा होता है, क्योंकि उन्होंने पूर्व में अपने और दूसरों के साथ छल-कपट किया था। जो जैसे भाव करता है, उसे वैसा फल मिलता है। इसलिए कहते हैं कि छल-कपट और पाँचों पापों की रुचि छोड़! तथा अपने ज्ञानानन्द स्वभाव की रूचि कर ।
अब नरकों की बात करते हैं। नरक सात हैं, तथा उनमें रहने वाले नारकी भी सात प्रकार हैं। जो जीव मांस खाते हैं, मदिरा पीते हैं, वे नरक में जाते हैं। वहाँ भी जीव अपने क्रूर भावों का फल भोगते हैं; नरक का क्षेत्र तो निमित्तमात्र है।"
इस गाथा द्वारा यह संदेश दिया गया है कि चारों गतियों में दुःख ही दुःख हैं और आत्मा स्वयं तो ज्ञान स्वभावी हैं, परन्तु उस आत्मा की रुचि नहीं करता, इस कारण चारों गतियों में भटकता है। अतः हमें प्राप्त मनुष्य पर्याय की दुर्लभता को समझकर वस्तु स्वरूप को एवं आत्मस्वभाव को समझना चाहिए, जिससे इन दुःखों से मुक्ति मिले।
१. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९०, दि. ३०-४-५२, पृष्ठ- १५३३
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गाथा - १९९
विगत गाथा में पंचेन्द्रिय जीवों में देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नरकगति के भेदों का कथन किया गया है।
अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न गतिनाम कर्म व आयुकर्म के समाप्त होने पर जीव अन्य गति प्राप्त करता है। मूल गाथा इसप्रकार है खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे य ते वि खलु । पाउण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेस्सवसा ।। ११९ ।। (हरिगीत)
गति आयु जो पूरब बंधे जब क्षीणता को प्राप्त हों । अन्य गति को प्राप्त होता जीव लेश्या वश अहो ।। ११९ ।। पूर्वबद्ध गतिनामकर्म और आयुकर्म क्षीण होने से वे जीव अपनी श्यावश वास्तव में अन्य गति और आयुष्य प्राप्त करते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “यहाँ चारों गतियाँ जीवों को गति नामकर्म और आयुष कर्म के उदय से निष्पन्न होती हैं। इसलिए देवत्वादि अनात्मा भूत हैं अर्थात् ये चारों गतियाँ आत्मा का स्वभाव नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि जीवों को देवत्व आदि की प्राप्ति में पौद्गलिक कर्म निमित्त हैं, इसलिए देवत्वादि जीव का स्वभाव नहीं है।
जीवों को जिसका फल प्रारंभ हो जाता है वह गतिनाम कर्म और आयुकर्म क्रमशः क्षय होते जाते हैं। ऐसा होने पर भी उन्हें कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति रूप लेश्या अन्यगति व अन्य आयु का कारण होती है।"
इसी के भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं।