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पञ्चास्तिकाय परिशीलन ऐसे दोइ इन्द्री प्राणी जैन मैं बखानै तातें, ग्याता दयाभाव राखि ग्यान कै सरण है।।३८ ।।
(दोहा) जो दयालता भाव धरि, करै दया-परिनाम ।
थावर त्रस दोनों तजै, सोचे तन सुख धाम।।३९ ।। कवि कहते हैं कि ह्न शंख-सीप, कृमि आदि दो इन्द्रिय जीव हैं। इनके स्पर्शन व संवर दो इन्द्रियाँ होती हैं। दयालु व्यक्ति इनकी हीन-दीन दशा को जानकर इनके प्रति दया भाव रखकर इनकी रक्षा करें। ___ गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने इस गाथा के व्याख्यान में जो कहा ह्र उसका सारांश यह है कि ह्न शंख, शीप, कृमि, लट् वगैरह अनेक प्रकार के दो इन्द्रिय जीव हैं। वे रसना इन्द्रिय से तथा स्पर्शन इन्द्रिय से शीत उष्ण जानते हैं।
आचार्यश्री जयसेन की टीका का हवाला देते हुए गुरुदेवश्री ने कहा है कि ह्र आत्मा का स्वभाव तो हू इन्द्रियों से जुदा ही है तथा अपने ज्ञानदर्शन गुणों से अभिन्न है; परन्तु जिनको ऐसी भावना नहीं है कि ह्न 'मैं तो शुद्ध चिदानन्द आत्मा हूँ। ज्ञाता-दृष्टा हूँ।' तथा स्पर्श के भोग में एवं रसना इन्द्रिय की गद्धता में सुख मानकर राग-द्वेष में अटक गया है. वह दो-इन्द्रिय नामकर्म बाँधता है उसके निमित्त कारण से दो-इन्द्रिय जीवों का शरीर मिलता है।
वर्तमान में जो शरीर का संयोग दिखाई देता है, वह मैंने स्वयं ने पूर्व में भूल की है तथा उसके निमित्त से जो कर्म बाँधे हैं, उसके फल में यह सब विचित्रता दिखाई देती है। अतः यदि हमें इन हीन पर्यायों में जन्म नहीं लेना हो तो हमें अपने शुद्ध चैतन्य स्वभाव की श्रद्धा व ज्ञान करना चाहिए।"
इसप्रकार इस गाथा में दो इन्द्रिय जीवों के भेद बताते हुए यह कहा गया है कि यदि हम इन पर्यायों में न जाना चाहें तो हमें अपने चैतन्य स्वभाव को जानना/पहचानना चाहिए
. १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९०, दि. २९-४-५२ के आगे, पृष्ठ-१५३१
गाथा -११५ विगत गाथा में दो इन्द्रिय जीवों के भेद बताये हैं। अब प्रस्तुत गाथा में तीन इन्द्रिय जीवों के प्रकार बताते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न जूगागुं भीमक्कणपिपीलिया विच्छुयादिया कीडा। जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा।।११५।।
(हरिगीत) चींटि-मकड़ी-लीख-खटमल बिच्छु आदिक जंतु जो। फरस रस अरु गंध जाने तीन इन्द्रिय जीव वे||११५||
जूं, चींटी, मकड़ी, लीख, खटमल, बिच्छु आदि जो जंतु स्पर्श, रस, गंध को जानते हैं, वे तीन इन्द्रिय जीव हैं।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र स्पर्शन इन्द्रिय, रसना-इन्द्रिय और घ्राण इन्द्रिय के क्षयोपशम के कारण तथा शेष इन्द्रियों तथा मन के आवरण का उदय होने से स्पर्श रस गंध को जानने वाले ह्न ये तीन इन्द्रिय जीव हैं, ये जीव मन रहित होते हैं। कवि हीरानन्दजी इस गाथा को पद्य में इसप्रकार कहते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा ) जूका कुंभी मकड़ी औ चींटी बीछू आदि जीव,
फास रस घ्राण ग्राही तीन इन्द्री घनै हैं। ते-इन्द्रिय जान नामकर्म कै उदयाधीन,
जग में मलीन डौले नाना रूप बने हैं।। शेष इन्द्री दोड़ और चित-आवरण जोर,
तातें अमना सदीव गंथनि मैं गनै हैं। ऐसे जीव देखिकै दयालता न आई कब,
याही ते जगत जीव दुःखरासि सनै हैं।।४१।।
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