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पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) याही लोक विर्षे एक पुद्गल अनेकरूप,
खंध परजाय करि काहू काल होई है। खंधदेसरूप परजाय काहू काल होई,
काहूकाल खंधपरदेस रूप सोई है ।। काहू काल परमानू परजाय रूप होई,
___ चारों भेद पुद्गल कै और नाहिं कोई है। ताते और भेद कोई पुद्गल का नाहीं कहा,
एक अंग सरवंग कहे मिथ्या जोई है।।३३५ ।। इन छन्दों में कवि कहते हैं कि ह स्कन्ध, स्कन्धदेस, प्रदेश और परमाणु पुद्गल के ये चार प्रकार हैं।
इस लोक में एक पुद्गल द्रव्य अनेक रूपों में हैं ह्न किसी एक पर्याय में उसका स्कन्ध रूप होता है, किसी दूसरी पर्याय में स्कन्धदेस रूप होता तो किसी तीसरी पर्याय में प्रदेसरूप तथा चौथी पर्याय में परमाणु रूप अवस्था होती है। ये चारों भेद पुद्गल के हैं, इनके सिवाय पुद्गल का और कोई भेद नहीं है।
इसी बात को गुरुदेवश्री कानजीस्वामी इसप्रकार कहते हैं कि ह्र पुद्गल के स्कन्ध, स्कन्ध का आधा भाग, चौथा भाग एवं परमाणु इसप्रकार ये चार प्रकार पुद्गल हैं; जोकि मात्र जानने योग्य हैं। उन्हें कोई न बना सकता है और न तोड़ सकता है। इसलिए जीव को पुद्गल के कर्तृत्व का अभिमान छोड़ देना चाहिए।
अज्ञानी जीव पर पदार्थों के ग्रहण-त्याग के स्वामी होते हैं तथा धर्म के नाम पर थोड़ा पर पदार्थों को त्यागने का अभिमान करके ऐसा मानते हैं कि ह्र 'मैंने इतने पदार्थों को त्यागा हैं' जबकि पर पदार्थों को छोड़ना व ग्रहण करना जीव के हाथ में है ही नहीं। ज्ञानी जीव भी मात्र उन पदार्थों
पुगल द्रव्यास्तिकाय (गाथा ७४ से ८२)
२६७ के प्रति ममत्व के भाव को छोड़ते हैं। परपदार्थ अपने समय में स्वतः छूटते हैं, उनके त्याग व ग्रहण का कर्ता जीव नहीं है। ___ जब पुद्गल एकत्रित होकर रहते हैं या छूटे-खुल्ले (बिखरे) रहते हैं तब वे मिलते-बिछुड़ते हुए छोटे-बड़े स्कन्धों के रूप में रहते हैं। जब वे स्वयं के कारण ही अर्द्ध भाग रूप होते हैं, तब वे पुद्गल स्कंधदेस के रूप में होते हैं; उन्हें इन रूप अन्य कोई करता नहीं है, वे स्वतः ही उक्त चार रूप में परिणमित होते हैं। जो ऐसा ज्ञान करे तो पुद्गलों के कर्तृत्व का अभिमान छूट जाता है और ज्ञानी मात्र उनका ज्ञाता रह जाता है।
अज्ञानी माता-बहिनें घर की वस्तुओं में ममता करती हैं। भाई लोग रुपया-पैसा आदि में अपनापन करते हैं और यह मानते हैं कि वह स्कन्ध की अवस्था हम से होती है। रुपयों की, रोटी की, शाक वगैरह जड़ पदार्थों की जो अवस्था होती है जबकि वह पुद्गलपरमाणु के कारण होती है, जीव उसका कर्ता नहीं है। ह्र ऐसा ज्ञान करे तो पुद्गल में कर्तृत्व का अभिमान छूट जाता है। और स्वयं केवल ज्ञाता रह जाता है।"
इसप्रकार इस गाथा में पुद्गल के चार भेद बताये हैं तथा गुरुदेवश्री ने पुद्गल के विषय में अज्ञानी की मान्यता बताते हुए उनमें ममत्व त्याग की प्रेरणा दी है तथा कहा है कि ह्न जो पुद्गल के चार भेद कहे, उन्हें अपने ज्ञान का ज्ञेय बनाकर अपने स्वरूप में स्थिर होने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १६६, पृष्ठ-१३१३, दिनांक ५-४-५२