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पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा ) रूपादि गुन को और परमानू दरव को,
नाम मात्र भेदलसै देस भेद नाहीं है। मही-तोय-तेज-वायु च्यारौं का कारनरूप,
परमाणू नाम तामैं चित्र परछाँहीं है ।। जैसें तामैं गंध आदि विकत-अविकत है,
तैसें कै सब्दरूप नैक न दिखाहीं है। एक परदेस अनू सबद है खंद जन्य,
ऐसैं परमाणु भेद जिनवाणी माहीं है।।३४६ ।। उपर्युक्त छन्दों में यह कहा गया है कि रूपादि गुण और परमाणु द्रव्य में नाम मात्र का भेद है, कथनमात्र भेद है, प्रदेश भेद नहीं है। पृथ्वीजल-अग्नि-वायु चारों का एक नाम परमाणु है, चारों परमाणु रूप हैं। जैसे उन परमाणुओं में गंध आदि व्यक्त एवं अव्यक्त हैं, वैसे वे परमाणु शब्दरूप से दिखाई नहीं देते। अणु एक प्रदेशी हैं तथा शब्द स्कन्ध जन्य हैं। जिनवाणी में ऐसा परमाणु भेद कहा है।
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी इसके भावार्थ में कहते हैं कि ह्र “परमाणु द्रव्य शक्तिवान हैं तथा उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण चार गुण हैं।
शक्तिवान द्रव्य गुण के बिना नहीं होता। उसमें स्पर्श रस गंध वर्ण की शक्ति है, परमाणु निर्विभाग है। वह स्कन्ध का अन्तिम अंश है। वह आदि-मध्य-अन्त में एक ही है। इसकारण परमाणु के दो भाग नहीं होते। पृथ्वी, अग्नि, वायु वगैरह जुदे-जुदे पुद्गल के परमाणु नहीं हैं, किन्तु परमाणु ही जुदी-जुदी अवस्था धारण करते हैं। कोई पृथ्वी रूप परिणमते हैं कोई पानी रूप परिणमते हैं।"
इसप्रकार इस गाथा में परमाणु के स्वरूप में यह कहा है कि ह्न परमाणु भिन्न जाति के नहीं होते। मूर्तत्व के कारणभूत जो स्पर्शादि हैं, उनका परमाणु से कथन मात्र ही भेद किया जाता है। वस्तुतः तो परमाणु एकप्रदेशी ही होता है तथा समस्त परमाणु समान गुण वाले ही होते हैं।. १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १६८, पृष्ठ-१३३३-३४, दि.८-४-५२
गाथा-७९ विगत गाथा में यह कहा गया है कि जो आदेश (कथन) मात्र से मूर्त हैं तथा पृथ्वी आदि चार धातुओं का कारण वह परमाणु है। शब्द स्कन्धजन्य है, स्कन्ध परमाणु का संघात है। शब्द पुद्गल स्कन्ध की पर्याय है, आदि । ह्र मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
सद्दो खंधप्पभवो, खंधो परमाणुसंगसंघादो। पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिगो णियदो।।७९।।
(हरिगीत) स्कन्धों के टकराव से शब्द उपजें नियम से।
शब्द स्कन्धोत्पन्न है अर स्कन्ध अणु संघात है।।७९|| शब्द स्कन्धजन्य है, स्कन्ध परमाणुदल का संघात है अर्थात् स्कंध परमाणु से मिलकर बना है और उन स्कन्धों के स्पर्शित होने-टकराने से शब्द उत्पन्न होते हैं। इसप्रकार वे नियतरूप से उत्पाद्य हैं।
समय व्याख्या टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र शब्द पुद्गल स्कन्ध पर्याय है।
इस लोक में बाह्य श्रवणेन्द्रिय द्वारा अवलंबित तथा भावेन्द्रिय द्वारा जानने योग्य ध्वनि शब्द है । वह शब्द अनन्त परमाणुओं की स्कन्धरूप पर्याय है।
बहिरंग साधनभूत महा स्कन्धों द्वारा शब्द परिणमरूप उत्पन्न होने से वह स्कन्धजन्य हैं, क्योंकि महास्कन्ध पट रूप टकराने से शब्द उत्पन्न होता है।
पुनश्च यह बात विशेष समझाई जाती है ह्र एक दूसरे में प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर अपने स्वभाव से ही निर्मित अनन्त परमाणुमयी शब्द योग्य वर्गणाओं से समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहाँ-जहाँ बहिरंग
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