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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
( सवैया इकतीसा )
जैसे आकास दरव जीव और पुग्गलकौं,
अवकास देनवाला सदाकाल हत है । तैसें जीव पुग्गलकै चलने रहनेकौं भी,
करता अकास जौ पै कारन महत है ।। तौ पै कही कैसें रहे ऊरध सुभाव-गत,
सिद्ध सिद्ध अलोकविषै आगे क्यों न गत है। नभ तौ सहायकारी आतमा विहारधारी,
सारी बात विभचारी श्रीजिनेस मत है ।।४०७ ।। (दोहा)
जैसे सब आकासमैं, गुन अवकास अखंड |
गति - थिति - कारन है नहीं, वस्तुरूप बल चंड ।।४०८ ।। कवि हीरानन्दजी कहते हैं कि जिसप्रकार आकाशद्रव्य में अवकाश देने का गुण है, वैसे ही जीव पुद्गलों को गति व स्थिति देने निमित्तरूप बनने का धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य में गुण है। आकाशद्रव्य में गतिस्थिति में निमित्त बनने का गुण नहीं है। इसकारण सिद्ध जीव अलोक में नहीं जाते ।
इसका स्पष्टीकरण करते हुए अपने व्याख्यान में गुरुदेव श्रीकाजी स्वामी कहते हैं कि इस गाथा में यह भेदज्ञान कराया है कि ह्न आकाश द्रव्य से धर्म-अधर्म द्रव्य जुदे हैं। आकाश द्रव्य में गति स्थिति में निमित्त होने का गुण नहीं है । इस कारण धर्म-अधर्म द्रव्य का काम आकाश द्रव्य नहीं कर सकता। ऐसा कहकर भेदज्ञान कराया है। पंचास्तिकाय का ज्ञान भेदज्ञान का कारण है। इसमें दृष्टि का विषय आ जाता है।
इसप्रकार संक्षेप में लोक- अलोक का ज्ञान कराया है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७६, दिनांक १५-४-५२, पृष्ठ- १३९९
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गाथा - ९३
विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न आकाश द्रव्य में गति स्थिति हेतुत्व होने की शंका निरर्थक है, क्योंकि फिर जीव को अनन्त आकाश में अनन्तकाल तक का प्रसंग आयेगा। जो कि असंभव है।
अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र जिनवरों ने सिद्धों की लोकांत में स्थिति कही है, इसलिए गति-स्थित अलोकाकाश में नहीं है।
मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति ।। ९३ ।।
(हरिगीत)
लोकान्त में तो रहे आत्मा अष्ट कर्म अभाव कर ।
तो सिद्ध है कि नभ गति थिति हेतु होता है नहीं ॥ ९३ ॥
जिससे जिनवरों ने सिद्धों की लोक के ऊपर स्थिति कही है, इसलिए गति-स्थिति आकाश में नहीं होती ह्न ऐसा जानो ।
आचार्य अमृतचन्द स्वामी ने भी विशेष कुछ न कहकर मात्र यही कहा कि ह्न सिद्धभगवन्त गमन करके लोक के ऊपर (लोकाग्र में) स्थिर होते हैं। क्योंकि आकाशद्रव्य गति हेतुत्व नहीं है। लोक व अलोक का विभाग करनेवाले धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य ही गति-स्थिति में निमित्त होते हैं। कवि हीरानन्दजी अपनी काव्य की भाषा में कहते हैं कि ह्र (दोहा)
जो सिद्धाले सिद्ध हैं, और कहूँ नहि जाहिं ।
तो तिथिति आकास-गुण, निहचै जानौं नाहिं ।। ४०९ ।। ( सवैया इकतीसा ) जातैं कर्मनास भये ऊरध स्वभाव सेती,
सिद्धजीव जाय जाय सिद्धगति वासी है।