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पञ्चास्तिकाय परिशीलन इस गाथा में गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने विशेष बात यह कही है कि ह्र “पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है एवं अचेतन है तथा आत्मा चेतन व अमूर्तिक है। यह बताकर वे आत्मा पर पदार्थों से जुदा है" ह्र ऐसा कहते हैं। जो पदार्थ आत्मा से जुदे हैं, उनका त्याग आत्मा इस प्रकार करे कि कुटुम्ब, पैसा, शरीर वगैरह से तो आत्मा जुदा ही है, जब आत्मा ने उन्हें ग्रहण ही नहीं किया तो त्याग किसका करे? अतः आत्मा पर का ग्रहण-त्याग नहीं करता। पर वस्तु को छोड़ना नहीं पड़ता। वह तो छूटी ही पड़ी है। समस्त पर पदार्थ अपने आत्मा से त्रिकाल भिन्न ही हैं। विकार को भी छोड़ना नहीं है, जो विकार हो चुका, वह अगले क्षण छूटने वाला ही, वर्तमानशुद्धस्वभाव की प्रतीति होने पर मिथ्यात्व की उत्पत्ति ही नहीं होती।"
इसप्रकार इस गाथा में कहा गया है कि - इस जगत में छह द्रव्य हैं, उनमें प्रत्येक के भिन्न-भिन्न भाव हैं। पाँच जड़ पदार्थों में प्रत्येक का भाव अपने-अपने हैं तथा वे स्वयं से अभेद हैं तथा पर से भेदरूप हैं। चैतन्यमय जीव का स्वयं का भाव भी स्वयं से अभिन्न है तथा पर से भिन्न है। आकाश द्रव्य अमूर्तिक है, उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नहीं है। आत्मा में स्पर्श आदि नहीं हैं। आकाश अचेतन अमूर्तिक है तथा आत्मा चेतन अमूर्तिक है। इस तरह इस गाथा के द्रव्यों का परिचय कराया।
गाथा- ९८ विगत गाथा में पुद्गल द्रव्य को मूर्त एवं शेष पाँचों द्रव्यों को अमूर्त कहा है तथा जीव को चेतन शेष पाँचों द्रव्यों को अचेतन कहा गया है।
अब प्रस्तुत गाथा में द्रव्यों की सक्रियता और निष्क्रियता के विषय में कहा जा रहा है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जीवा पोग्गलकाया सह सक्किरिया हवंतिणय सेसा। पोग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु।।१८।।
(हरिगीत) सक्रिय करण-सह जीव-पुछाल शेष निष्क्रिय द्रव्य हैं।
काल पुद्गल का करण पुद्गल करण है जीव का ।।९८|| बाह्य साधन सहित जीव और पुद्गल सक्रिय हैं। शेष द्रव्य सक्रिय नहीं है, निष्क्रिय हैं। जीव का बाह्य करण (साधन) कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल तथा पुद्गल की सक्रियता में काल साधन (करण) है।
टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र यहाँ द्रव्यों का सक्रिय व निष्क्रियपना कहा है। प्रदेशान्तर प्राप्ति का हेतु परिस्पन्दन रूप पर्याय क्रिया है वहाँ बहिरंग साधन के साथ रहने वाले जीव सक्रिय हैं, बहिरंग साधन के साथ रहने वाले पुद्गल सक्रिय हैं। आकाश निष्क्रिय हैं, धर्म द्रव्य निष्क्रिय हैं, अधर्म निष्क्रिय हैं, काल निष्क्रिय हैं। जीवों को सक्रियपने का बहिरंग साधन कर्म-नोकर्म के संचयरूप पुद्गल हैं; इसलिए जीव पुद्गल करण वाले हैं। उसके पुद्गल करण के अभाव के कारण सिद्धों को निष्क्रियपना है। अर्थात् सिद्धों को कर्म-नोकर्म के संचयरूप पुद्गलों का अभाव होने से वे सिद्ध निष्क्रिय हैं।
पुद्गल के अभाव के कारण सिद्धजीव निष्क्रिय हैं। पुद्गलों को
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७८, पृष्ठ-१४१५, दिनांक १७-४-५२