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पञ्चास्तिकाय परिशीलन सक्रियपने का बाह्य साधन परिणाम निष्पादक काल है। इसलिए पुद्गल काल साधन वाले हैं।
कर्मादिक की भाँति कालद्रव्य का अभाव नहीं होता, इसलिए सिद्धों की भाँति पुद्गलों को निष्क्रियपना नहीं होता ।
इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ( सवैया इकतीसा ) परदेससेती और परदेसविषै जाना, परजायरूप क्रिया ग्रंथनिमैं भाखी है। कर्मरूप पुग्गल का बाहिर निमित्त पाय,
जीव क्रियावंत बिना कर्म क्रिया नाखी है । बाहिर निमित्त परिनाम निमित्तकारी काल,
तातैं पुग्गलानु क्रियावंत सदा राखी है। च्यारों बाकी रहे द्रव्य निक्रिय सुभाव ते हैं,
ग्यानी यथा-रूप जानै जिनराज साखी है ।।४२७ ।। ( दोहा )
जे परदेस अडौल नित, ते निष्क्रिय पहिचान । जिनकै हलन चलन लसै ते हैं किरियावान ।। ४२८ ।। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने रूप क्रिया ग्रन्थों में कही है। कर्म रूप पुद्गलों का बाह्य निमित्त पाकर जीव क्रियावान होता है। शेष चारों द्रव्य निष्क्रिय स्वभाव के हैं। ज्ञानी उन सबके स्वरूप को यथायोग्य रीति से जानते हैं। संसारी जीव क्रियावान हैं, किन्तु सिद्ध निष्क्रिय होते हैं । क्योंकि उनमें हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती।
यहाँ गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि- “जीव और पुद्गल द्रव्यों में कुछ का क्षेत्रान्तर होने का स्वभाव है, सिद्धों का नहीं है। जो जीव व पुद्गल क्षेत्रान्तर होते हैं, उनमें परद्रव्य निमित्त होते हैं।
जीव संसार दशा में जब अपने कारण गति करता है, तब उसमें कर्म
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चूलिका (गाथा ९७ से ९९ )
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एवं शरीर को निमित्त कहा जाता है, परन्तु यदि प्रस्तुत कर्म - नोकर्म गति कराते हों तो धर्मद्रव्य व अधर्म को भी गति करा देते, परन्तु यह तो संभव नहीं है; क्योंकि उनके उपादान में गति करने की योग्यता ही नहीं है। जीव में स्वयं में उपादान योग्यता गमन करने की है तो कर्म-नोकर्म को निमित्त कहा जाता है।
अब पुद्गल की बात करते हैं। लक्ष्मी, मकान, रोटी, दाल-भात वगैरह जो पुद्गल स्कन्ध स्वयं अपने कारण क्षेत्रान्तर गमन करते हैं, वही उसके उपादानकारण हैं, उसमें निमित्तकारण काल द्रव्य है।
देखो, जीव का निमित्तपना निकाल दिया, तथा काल को निमित्त कारण कहा है। इसीप्रकार मकान में राग, रोग में साता कर्म का उदय, अलमारी ऊँचा करने में जीव, पुद्गलादि के परिणमन में अन्य को निमित्त न कहकर मात्र काल द्रव्य को निमित्त कहा है।
स्वकाल में परिणमित पुद्गलों को मात्र काल निमित्त है ह्र ऐसा कहकर सूक्ष्म भेदज्ञान कराया है। उन पुद्गलों के परिणमन का तो वही स्वकाल है; इसलिए उस पर से दृष्टि उठाओ। निमित्त का कथन करके तो परद्रव्यरूप निमित्त का ज्ञान मात्र कराया है। "
प्रस्तुत गाथा का भावार्थ यह है कि ह्न एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में गमन करने को क्रिया कहते हैं। छह द्रव्यों में से जीव को क्षेत्रान्तर करने में पुद्गल निमित्त होता है; क्योंकि उक्त दोनों द्रव्य क्रियावन्त हैं। शेष चार द्रव्य निष्क्रिय एवं निकम्प हैं।
क्षेत्रान्तर होना जीव की स्वाभाविक क्रिया नहीं है । संसारावस्था में स्वयं की तत्समय की योग्यता एवं कर्म के निमित्त से क्रिया होती है। सिद्ध होने पर कर्म - नोकर्म का अभाव हो जाता है। इसकारण तथा निष्क्रिय रहना ही स्वाभाविक क्रिया होने से सिद्धदशा में जीव निष्क्रिय रहता है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७८, पृष्ठ- १४२२, दिनांक १८-४-५२