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गाथा - १०८
विगत गाथा में निश्चय - व्यवहार सम्यक् दर्शन सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का स्वरूप कहा है।
अब प्रस्तुत गाथा में जीव अजीव आदि नवपदार्थों का स्वरूप कहते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । संवरणं णिज्जरणं बंधो मोक्खो य ते अट्ठा ।। १०८ ।। (हरिगीत)
फल जीव और अजीव तद्गत पुण्य एवं पाप हैं।
आसरव संवर निर्जरा अर बन्ध मोक्ष पदार्थ हैं ॥ १०८ ॥ जीव- अजीव, पुण्य-पाप तथा आस्रव संवर- निर्जरा-बंध और मोक्ष ह्न ये नौ पदार्थ हैं ।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में उक्त नव पदार्थों के नामों का उल्लेख करते हुए विशेष यह कहते हैं कि ह्न “चैतन्य जिसका लक्षण है ह्र ऐसा जीवास्तिकाय जीव है। चैतन्य का अभाव जिसका लक्षण है ह्र वे अजीव द्रव्य हैं। पूर्वोक्त अजीव द्रव्य के पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ह्न ये पाँच भेद हैं। ये दोनों ह्न जीव व अजीव पृथक्पृथक् अस्तित्व द्वारा निष्पन्न होने से भिन्न स्वभाववाले हैं।
जीव और पुद्गलों के संयोगी परिणाम से उत्पन्न होने वाले सात अन्य पदार्थ हैं। जो इसप्रकार हैं ह्न जीव के शुभपरिणाम तथा वे शुभपरिणाम जिसमें निमित्त हैं ह्र ऐसे पुद्गलों के शुभकर्मपरिणाम पुण्य है। जीव के अशुभ परिणाम तथा वे अशुभ परिणाम जिनके निमित्त हैं ह्र ऐसे पुद्गलों के कर्मपरिणाम वह पाप है। जीव के मोह-राग-रूप परिणाम भावास्रव हैं तथा वे जिनके निमित्त हैं ह्र ऐसे जो योग द्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलों के कर्म परिणाम द्रव्यआस्रव हैं। जीव के मोह-राग-द्वेषरूप
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नवपदार्थ एवं मोक्षमार्ग प्रपंच (गाथा १०५ से १०८)
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परिणामों का निरोध भावसंवर है तथा वह जिसका निमित्त है ह्र ऐसा जो योग द्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलों के कर्म परिणाम का निरोध द्रव्य संवर है। कर्म की शक्ति को क्षीण करने में समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अन्तरंग तपों के द्वारा वृद्धि को प्राप्त जीव का शुद्धोपयोग भावनिर्जरा है तथा उसके प्रभाव से वृद्धि को प्राप्त शुद्धोपयोग के निमित्त से नीरस हुए उपार्जित कर्म पुद्गलों का एकदेश क्षय द्रव्य निर्जरा है।
जीव के मोह-राग-द्वेष रूप परिणाम का निरोध भाव संवर है तथा मोह-राग-द्वेष रूप परिणामों का निरोध जिसका निमित्त है ह्र ऐसा जो योग द्वारा प्रविष्ट होने वाले पुद्गलों के कर्म परिणामों का निरोध द्रव्याव जीव के मोह-राग-द्वेष द्वारा स्निग्ध परिणाम भाव बंध है तथा उनके निमित्त से कर्मरूप परिणमन पुद्गलों का जीव के साथ अन्योन्य अवगाहन द्रव्य बंध है। जीव की अत्यन्त शुद्ध आत्मोपलब्धि भाव मोक्ष है तथा कर्म पुद्गलों का जीव से अत्यन्त विश्लेषण मोक्ष है।
इस गाथा के भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ( सवैया इकतीसा )
चेतना सुभाव जीव चेतना अभाव जामै,
सो अजीव पंच भेद श्री जिनेस भाखा है। जीव के विसुद्ध भाव, कर्म पुद्गलाणु द्रव्य,
संकलेस कर्म पाप दर्व भाव साखा है ।। कर्मद्वार आस्रव औ द्वार रोध संवर है,
एकदेस कर्मनास निर्जराभिलासा है । जीव कर्म एकमेक बंध, सर्वकर्म नास,
मोख का स्वरूप ग्यानी आप मांहि चाखा है ।। १४ ।। (दोहा)
दर्व भाव दुधभेद हैं नवौं पदारथ माहिं । दरबभेद पुद्गल विषै, भाव जीव परछाहिं ।। १६ ।। कवि हीरानन्दजी ने अपने छन्दों में नवपदार्थों के द्रव्य एवं भावदोनों भेदों की व्याख्या प्रस्तुत की है।