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पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) मही तोय तेज वायु औ वनसपति काय,
पुद्गल कै परिनाम नाना रूप खंध हैं। थावरनाम करम उदै आये सेती जीव,
नाना रूप देहधारी चेतना प्रबन्ध है। ऐसे कै अनंत जीव, पाचौं काय में सदीव,
एक इन्द्री विषै वेदै मोह रूप अंध है। ऐसे जीव भेद सेती जीव भेद जान्या नाहिं, सारै जग डोलै मिथ्यामति अंधधंध है।।२४।।
(दोहा) करम-चेतना फल जहाँ, मोह बहुलताभार ।
थावर पन मैं जीव कौं, नैक न पर संसार।।२६ ।। कवि उक्त पद्यों में कहते हैं कि ह्न पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति सहित एकेन्द्रिय जीव जो अनेक प्रकार के होते हैं वे मोह बहुल स्पर्शन इन्द्रिय वाले हैं। इनके देह के रूप में इसी जाति के पुद्गल स्कन्ध नानारूप परिणमते हैं। स्थावर नामकर्म के उदय आने पर जीव इन पर्यायों में जाते हैं। इसप्रकार इन पाँचों कायों में अनन्त जीव राशि एकेन्द्रिय पर्याय में रहकर मोहकर्म का वेदन करते हैं। वहाँ कर्मफल चेतना ही कहती हैं।
इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने कहा कि ह्र ऐकेन्द्रिय आदि पर्यायों में रहना जीव का स्वभाव नहीं है। आत्मा का स्वभाव तो अखण्ड ज्ञायक ज्योति है। जो अपने उस ज्ञायक में एकाग्रता करे तो केवलज्ञान प्राप्त करे। यदि ज्ञायक स्वभावना न भाये तथा स्पर्शन इन्द्रिय का लम्पटी हो तो ज्ञान स्वभाव से चूककर एकेन्द्रिय आदि की हीन पर्याय प्राप्त करता है।
जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३)
३५५ उपर्युक्त कथन का सार यह है कि ह्न एकेन्द्रिय जीव के अस्तित्व को स्वीकार करने पर जगत में अनन्त आत्माओं की सत्ता स्वतः सिद्धि हो जाती है, एक इन्द्रिय जीवों के ज्ञान की अतिहीन दशा हो जाती है; फिर भी आगे बढ़ने की योग्यता उस दशा में भी रहती है। ____ मनुष्यपने में सच्ची समझ हो सकती है, किन्तु उसकी उपेक्षा करके वस्तु स्वरूप का जो तीव्र विरोध करता है, उसके फल में अतीन्द्रिय स्वभाव का अनादर कर वह ऐसे कर्मों का उपार्जन करता है, जिसके फल में उसे एकेन्द्रियपना प्राप्त होता है।"
ऊपर के कथन का तात्पर्य यह है कि ह्न एकेन्द्रिय जीवों के अनेक भेद हैं। वे जीव मोहकर्म के निमित्त से एवं अपनी अज्ञानता के कारण दुःख भोगते हुए मात्र एक काय के अधीन होकर अनेक अवस्थायें धारण करते हैं।
जो ज्ञानी जीव एकेन्द्रिय आदि के अस्तित्व की श्रद्धा करते हैं तथा जिसे ऐसा आत्मा के अस्तित्व का विवेक जागृत हो जाता है, वे एकेन्द्रिय आदि की हीन पर्यायों में पैदा नहीं होते।"
इसप्रकार यहाँ कहते हैं कि - पर्याय में हीन दशा होने पर भी द्रव्य के गुण कायम रहते हैं। पर्याय मात्र स्पर्श को ही जानती है, स्पर्श के ज्ञान का मात्र क्षयोपशम होता है और मात्र स्पर्श ही ज्ञान का विषय होता है। एकेन्द्रिय की पर्याय में जो अल्प क्षयोपशम है, उसे हेय तथा द्रव्य-गुण उपादेय हैं ह्र जिसने ऐसा जाना नहीं और अल्पज्ञता की तथा इन्द्रियों के विषयों की गृद्धता की भावना भायी, इस कारण उसे ही एकेन्द्रियपना मिलता है। अतः अनुकूल परिस्थितियों में अपने स्वभाव की पहचान कर लेना चाहिए।
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१. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १८८ दि. २८-४-५२, पृष्ठ-१५०९