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गाथा-१०३ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म एवं आकाश ह्र ये सब द्रव्यत्व एवं कायत्व संज्ञा को प्राप्त हैं; परन्तु काल में द्रव्यत्व तो है, पर कायत्व नहीं है।
अब प्रस्तुत गाथा में पंचास्तिकाय के अवबोध का फल कहकर पंचास्तिकाय के व्याख्यान का उपसंहार करते हैं।
मूल गाथा इसप्रकार हैह्न एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता। जो मुयदि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ।।१०३।।
(हरिगीत) इस भाँति जिनध्वनिरूप पंचास्ति प्रयोजन जानकर।
जो जीव छोड़े राग-रुष वह छूटता भव दुःख से।।१०३|| इसप्रकार प्रवचन के सारभूत पंचास्तिकाय संग्रह को जानकर जो राग-द्वेष को छोड़ता है, वह दुःख से परिमुक्त होता है।
टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र के कथन का सार यहाँ पंचास्तिकाय के अवबोध का फल कहकर पंचास्तिकाय के व्याख्यान का उपसंहार करते हैं। “वास्तव में संपूर्ण द्वादशांगरूप प्रवचन काल द्रव्य सहित पंचास्तिकाय से अन्य कुछ भी प्रतिपादित नहीं करता; इसलिए प्रवचन का सार ही यह 'पंचास्तिकाय संग्रह है। जो पुरुष समस्त वस्तुत्व का कथन करने वाले इस ग्रन्थ को अर्थानुसार जानकर यथार्थरीति से इसमें कहे हुए जीवास्तिकाय में अपने को अत्यन्त विशुद्ध चैतन्य स्वभाव वाला निश्चित करके निज आत्मा को उस काल अनुभव में आता देखकर कर्मबंध की परम्परा को बढ़ाने वाले राग-द्वेष को छोड़ता है, वह पुरुष राग-द्वेष को क्षीण करता है एवं पूर्व हुए बंध से छूटता हुआ परिमुक्त है।
उपसंहार (गाथा १०३ से १०४)
(दोहा) ऐसे प्रवचनसार मैं अस्तिकाय को जानि । राग-द्वेष को छांडकरि, गहौ दुःख परिहानि ।।४४२ ।।
(सवैया इकतीसा) काल युत पंच अस्तिकाय बिना और कछु,
कहैं नाहिं जैन तातै अस्तिकाय सार है। तामैं वस्तुरूप शुद्ध जीव अस्तिकाय बुद्ध,
पर के संयोग सेति सगरा विकार है ।। ऐसे ही विवेक ज्योति जगै राग-द्वेष-मोह,
भगै परभाव सेती बंधन विडार है। आकुलता दुःख डारि जथारूप धारि-धारि, भेदज्ञानी मोख पालै आगम अपार है।।४४३ ।।
(दोहा) षट् दरबातम ग्येय सब, ग्यान विर्षे विलसंत ।
ग्येय रूप सौ ग्येय हैं ग्याता ग्यान महंत ।।४४५ ।। कवि कहते हैं कि जो इसप्रकार द्वादशांग के सार रूप पंचास्तिकाय के स्वरूप को जानकर एवं फलस्वरूप राग-द्वेष को छोड़कर वस्तु स्वरूप को ग्रहण करता है वह सम्पूर्ण दुःख से मुक्त हो जाता है। __ आगे सवैया एवं दोहे में कहते हैं कि ह्न काल सहित पंचास्तिकाय के सिवा जिनागम में और कुछ कहा ही नहीं है, इसलिए ये पंचास्तिकाय ही सारभूत हैं।
इन पंचास्तिकायों में एक जीवद्रव्य ही ज्ञानवान हैं; परन्तु इसमें पर के संयोग से राग-द्वेषादि रूप विकार अनादि से हैं। जब ऐसी भेदज्ञान की ज्योति जीव में जागती है तो परभाव उत्पन्न हुए विकार नष्ट हो जाते हैं। बन्धन टूट जाते हैं। इस प्रकार विवेक ज्योति जगने पर मोह-राग-द्वेष नष्ट हो जाते हैं। आकुलता मिट जाती है, जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।
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