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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
तैसा ही अधर्म द्रव्य सगरे विसेषण सौं, थितिकिरिया वंतों का कारण कहाही है। पाँचों अस्तिकाय विषै एक अस्तिकाय कहे,
यथारूप जानै मिथ्या मोहिनी ढहाही है ।। ३७९ ।। जैसा धर्मदर्व कहा तैसा ही अधर्म दर्व,
इतना विसेस पर नीकै निहारतें । गतिकिरियावंतों को पानीवत् कारन है,
धर्म दर्व जथारूप वस्तुता विचारतें ।। थितिकिरयावन्तों कौं पृथ्वीवत कारन है,
सोई तौ अधर्मद्रव्य थिति के संभारतै । पृथ्वी आप थानरूप अश्वक रहावे नाहि,
उदासीन थिति - हेतु सम्यक् उजारतैं । । ३८० ।। (दोहा)
ज्यौं ग्रीषम मैं पथिक कौ छाया शीतलठौर ।
थिति कारण अधरम तथा, क्षिति कारक है और ।। ३८१ ।। कवि हीरानन्दजी उक्त दोहा एवं सवैया में कहते हैं कि ह्न जैसा धर्मद्रव्य को असंख्यात प्रदेशी अरस, अरूप और अगंध तथा शब्द और स्पर्श के बिना लोक प्रमाण कहा है, उसीप्रकार यह अधर्म द्रव्य उक्त सभी विशेषणों से संयुक्त है तथा जीव और पुद्गलों को स्थिति में निमित्त है।
श्री गुरुदेवकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “पृथ्वी अपने स्वभाव से अपनी अवस्था में स्थिर है तथा अधर्म द्रव्य भी अपने स्वभाव से ही स्थिर है तथा स्वयं स्थिर रहते हुए जीव व पुद्गलों की स्थिरता में अधर्म द्रव्य निमित्त कारण होता है; परन्तु वह अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलों को जबरदस्ती से स्थिर नहीं कराता । यदि गतिपूर्वक स्थिति में जीव व पुद्गल अपनी तत्समय की योग्यता से स्थिति करें तो अधर्म द्रव्य उनकी स्थिति में अपनी
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धर्म द्रव्यास्तिकाय व अधर्म द्रव्यास्तिकाय (गाथा ८३ से ८९) स्वाभाविक उदासीन अवस्था रूप से निमित्त मात्र सहायक होता है।'
यहाँ श्री जयसेनाचार्य अपनी संस्कृत टीका में कहते हैं कि ह्न 'मैं आत्मा शुद्धस्वरूपी हूँ' ऐसा भान होने पर स्वभाव में स्थिरता होती है। इस प्रमाण शुद्ध आत्मा में स्थिरता का निश्चय कारण वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन है। शुभराग या पुण्य उसमें कारण नहीं है ।
जीव अपने पर्याय में होते हुए राग-द्वेष की अस्थिरता छोड़कर शुद्ध चिदानन्द स्वभाव में स्थिरता करता है। उसमें स्वसंवेदन निश्चय कारण है तथा उस समय हुए अरहंत सिद्ध का विकल्प निमित्त कारण कहलाता है।
धर्म-अधर्मद्रव्य से लोक- अलोक का विभाग पडता है। धर्मअधर्म द्रव्यों को न मानें तो लोक अलोक की सिद्धि नहीं होती । लोक- अलोक को व धर्म-अधर्म द्रव्यों को न जानें तो ज्ञान मिथ्या ठहरता है।
जो व्यक्ति धर्म-अधर्म द्रव्य को नहीं मानते, उनके समाधान के लिए आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव अगली गाथा लिखते हैं।
इसप्रकार उक्त गाथा एवं टीका तथा हीराचन्दजी ने मूल परिभाषा को लगभग एक तरह से कहते हीराचन्दजी ने धर्मद्रव्य व अधर्म को असंख्यातप्रदेशी, अरस, अरूप और अबाध बताते हुए जीव व पुद्गलों को गमनपूर्वक स्थिति में निमित्त बताया तथा आचार्य जयसेन ने धर्म व अधर्म द्रव्य की परिभाषाओं पर जोर न देते हुए कहा कि 'मैं आत्मा शुद्धस्वरूपी हूँ। ऐसा भान होने पर स्वभाव में स्थिरता होती है । ....... तथा आगे कहा कि - जीव अपने पर्याय में होते हुए राग-द्वेष की अस्थिरता छोड़कर शुद्ध चिदानन्द स्वभाव में स्थिरता करता है, उसमें स्वसंवेदन निश्चय कारण है तथा उस समय अरहंत सिद्ध का विकल्प निमित्त कारण है।' आदि की चर्चा करके नया प्रमेय प्रस्तुत किया।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७४, दिनांक २१-४-५२, पृष्ठ- १३८४