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गाथा-६९ विगत गाथा में आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का उपसंहार है। वहाँ कहा है कि ह्र इसलिए ऐसा निश्चित हुआ कि कर्म निश्चय से अपना कर्ता है तथा व्यवहार से जीव भावों का कर्ता है। जीव भी निश्चय से अपना कर्ता है और व्यवहार से कर्म का कर्ता है। तथा भोक्ता मात्र जीव ही है; जो कर्म अचेतन है जड़ है अतः वे भोक्ता नहीं हैं।
आगे कर्म संयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्व गुण का व्याख्यान है। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र एवं कत्ता भोत्ता होज्जं अप्पा सगेहिं कम्मेहिं । हिंडदि पारमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।।६९।।
(हरिगीत) इसतरह कर्मों की अपेक्षा जीव को कर्ता कहा। इसी अपेक्षा जीव मोहाच्छन्न हो, भ्रमता फिरै संसार में||६९|| इसप्रकार आत्मा अपने कर्मों का कर्ता-भोक्ता होता हुआ मोहाच्छादित होकर अनंत संसार में परिभ्रमण करता है।
आचार्यश्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न यह कर्म संयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्वगुण का व्याख्यान है।
प्रभुत्व शक्ति के कारण जिसने अपने भावकों एवं द्रव्यकर्मों द्वारा कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व को ग्रहण किया है, उस आत्मा का अनादि मोहाच्छादितपने के कारण विपरीत अभिप्राय की उत्पत्ति होने से सम्यग्ज्ञान अस्त हो गया है, इसलिए वह अनंत संसार में परिभ्रमण करता है।
कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्न
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
(दोहा) ऐसे करता-भोगता, आतम करम सुकीव । मोह-छन्न हीडे जगत, पार न लहै कदीव ।।३२२ ।।
(सवैया इकतीसा) जग में अनादि जीव अपना विभाव करै,
___ ताही का भुगता तातै प्रभुसक्ति धारै है। बिना आदि मोह लग्या, तातै विपरीत बग्या,
सांची ज्ञान ज्योति छाई मूढ़ता विथारै है।। पर का सहाय लीना अपना विसार दीना,
नानाकार रूप कीना बाहिर निहारै है। इष्टविर्षे सुखी होइ दुःखी है अनिष्ट माहिं, मिथ्यादृष्टि अंध डोलै नैक न संभारे है।।३२३ ।।
(दोहा) संसारी संसार मैं, करनी करै असार ।
साररूप जानै नहीं, मिथ्यापन कौं टार ।।३२४ ।। उक्त पद्यों में जो कुछ कहा गया है उसका संक्षिप्त सार यह है कि ह्र 'जग में अनादि काल से जीव विभावरूप परिणमन कर रहा है। और उसी के फल का भोक्ता है, इससे सिद्ध है कि उसमें प्रभुत्व शक्ति है अर्थात् वह प्रभुत्व गुण के कारण ही विभाव भावों का कर्ता-भोक्ता होता है। अनादि से मोहाच्छन्न है, इसकारण उसके विपरीता है। जब सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगट हो जाती है तब वह मूढ़ता का त्याग कर देता है। ___ जब तक मिथ्यादृष्टि रहती है तबतक पर में इष्टानिष्ट कल्पनायें करके सुखी-दुःखी होता रहता है। ___ इस विषय में गुरुदेवश्री कानजीस्वामी अज्ञानी की मान्यता बताते हुए कहते हैं कि ह“अज्ञानी जीव कहता है कि ह्र जैसे जादूगर डोरी
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