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पञ्चास्तिकाय परिशीलन इसी भाव को स्पष्ट करते हुए कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “जो जीव द्रव्य के और पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश पुंज अनादिकाल से परस्पर अत्यन्त सघन मिलाप से बन्ध अवस्था को प्राप्त हैं, वे ही जीव एवं पुद्गल उदयकाल की अवस्था में अपना रस देकर खिरते हैं। तब कर्म साता असाता के रूप सुख-दुःख देते हैं और जीव भोगते हैं।
निश्चय से तो आत्मा ज्ञानानन्द स्वरूप है, परन्तु वह जब अपने स्वभाव से चूककर विकार भाव करता है, तब पुद्गल वर्गणायें अपने कारण कर्मरूप से परिणमित होती हैं तथा ये कर्म वर्गणायें जीव को अनादिकाल से घने रूप में बाँध लेती रही हैं, अर्थात् अनादिकाल से जीव और कर्म एक क्षेत्रावगाह रूप से रह रहे हैं। ___आत्मा आत्मा रूप से तथा जड़ जड़ रूप से परस्पर कर्मरूप होते हैं। किसी एक कारण दूसरे का परिणमन नहीं है। जब पुद्गलकर्म अपना रस (अनुभाग) देकर खिर जाते हैं तब साता या असाता संयोग की प्राप्ति जीव को होती है। अज्ञानी जीव उनमें भले-बुरे की कल्पना करते हैं। इसकारण वे कर्मों के फल को भोगते हैं। ऐसा कहा जाता है।
किसी को पैसा मिले, किसी को रोग हो, किसी के पुत्र की मृत्यु हो, किसी को सर्प काटे ह्र ये सब प्रसंग स्वयं के कारण होते हैं तथा पापकर्म का उदय उसमें निमित्त होता है तथा जो जीव अपने राग से हर्ष-शोक करता है, वह उस जनित दुःख को भोगते हैं। ह्र ऐसा कहा जाता है।"
तात्पर्य यह है कि ह्र शुभ-अशुभ बाह्य पदार्थों में कर्म निमित्त कारण हैं। सबको कर्म के अनुसार संयोगों की प्राप्ति होती है, किन्तु अज्ञानी पर में सुख-दुःख की कल्पना करता है, जो यथार्थ नहीं है।
गाथा-६८ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय अन्योन्य ग्रहण द्वारा परस्पर बद्ध हैं, जब वे परस्पर प्रथक् होते हैं तब उदय पाकर खिर जाने वाले पुद्गल आत्मा के सुख दुःख में निमित्त होते हैं।
अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं, जो इसप्रकार है ह्र तम्हा कम्मं कत्ता भावेण हि संजुदोध जीवस्स। भोत्ता हु हवदि जीवो चेदगभावेण कम्मफलं ।।६८।।
(हरिगीत) चेतन करम युत है अतः करता-करम व्यवहार से। जीव भोगे करमफल नित चैत्य-चेतक भाव से ||६८|| जीव के भाव से युक्त द्रव्यकर्म निश्चय से अपने भावों के कर्ता हैं और व्यवहार से वे द्रव्यकर्म जीवभाव के कर्ता हैं; परन्तु चेतनभाव के कारण कर्मफल का भोक्ता तो मात्र जीव है। __आचार्यश्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न यह कर्तृत्व और भोक्तृत्व की व्याख्या का उपसंहार है। इसलिए ऐसा निश्चित हुआ कि ह्र कर्म निश्चय से अपना कर्ता है और व्यवहार से जीवभाव का कर्ता है; जीव भी निश्चय से अपने भाव का कर्ता है और व्यवहार से कर्म का कर्ता है, पर भोक्ता तो वह किसी का भी नहीं है; क्योंकि जो अनुभूति चैतन्यपूर्वक हो, उसी को यहाँ भोक्तृत्व कहा है। यहाँ चैतन्यपूर्वक अनुभूति का सद्भाव नहीं है। इसलिए चेतनपने के कारण मात्र जीव ही कर्मफल का भोक्ता है।
कवि हीरानन्दजी इसी भाव को काव्य में कहते हैं :ह्र
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १५८, गाथा-६७, दिनांक २७-३-५२, पृष्ठ-१२४५