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पञ्चास्तिकाय परिशीलन कवि हीरानन्दजी इन्हीं भावों को काव्य में इसप्रकार कहते हैं ह्न
(दोहा) करम बिना ए होहिं नहिं, उदय और उपसंत । छयोपशम-क्षय जीव कै, तातें करम करत ।।२८५ ।।
(सवैया इकतीसा ) करम बिना जीवौं कै उदय औ औपशम,
क्षय औ छयोपसम कहौ कैसैं मानिए। ताते च्यारौं एई दर्व कर्म की अवस्थारूप,
सुद्ध परिनामवस्था जीव की बखानिए ।। इनहीं अवस्था माहि, जीव-परिनाम जोई,
सोई भाव कर्मरूप चारौं भेद ठानिए। यातें दर्व कर्म रूप, हेत भावकर्म का है, असद्भूत नय तातें, जग माहिं जानिए।।२८६ ।।
(चौपाई ) परिणामिक निरुपाधिकहावै, स्वाभाविकसहभाव दिखावै। लसै अनादि-अनन्त दरवक, निज परिनाम सरूप सरवकै।।२८७।। छायिकभाव करमकै खयतें सादि अनंत सुभाव अखय तैं। कर्म उदै जब उपसम पावै, तब औपशमिकभाव कहावै।।२८८।। ऐसे करम उदैतें जानौ, भाव प्रगट औदयिक बखानौ । छय-उपसमफुनि याही विधि है, उदयाभावसमन परिसिधहै।।२८९।। ताते करम किये यौं मानी, करम निमित्त लसै परधानी। असद्भूत यहु नय विस्तारा, जानहु जिनवाणी करि सारा ।।२९० ।।
(दोहा) इनमै छायिक भाव जो, सादि अनंत कहाय । सोई सम्यकवंत कौ, उपादेय दिखराय ।।२९१ ।।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
२२१ जीव के उदय, उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम ह्न ये चारों भाव करम के बिना नहीं होते, इसलिए ये चारों भाव द्रव्य कर्म की अवस्थारूप हो गये हैं। तथा शुद्ध पारिणामिक भाव जीव की अवस्था है।
ये सारे भाव द्रव्य कर्म के हेतु रूप असद्भूतनय से जीव के कहे गये हैं। यह पारिणामिक भाव निरूपाधिक है, अनादि-अनंत है। शेष चार भावों में क्षायिक भाव मोह कर्मों के क्षय से सादि-अनन्त है। कर्म के उपशम से औपशमिक, कर्मों से उदय से औदयिक भाव नाम पाते हैं। यह सब असद्भूतनय का विस्तार है इनमें एक क्षायिकभाव ही सादिअनन्त है और उपादेय है।
२८७ से २९० तक चार चौपाइयों में पाँचों भावों के नाम एवं अत्यन्त सरल शब्दों में संक्षेप में स्वरूप कहा है, जिसे पद्य में पढ़कर भी जाना जा सकता है, अतः अर्थ नहीं लिखा।
इसी भाव को स्पष्ट करते हुए श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र"इस गाथा में कहा है कि ह्र जीव को रागद्वेष आदि परिणामों का कर्त्ता व्यवहारनय से कहा है। कर्म में भी उदय, उपशम, क्षयोपशम व क्षय अवस्थायें होती हैं। द्रव्य कर्म अपनी शक्ति से उस भावरूप परिणमन करते हैं। आत्मा उनका निमित्त पाकर उन पर लक्ष्य कर स्वयं अपने राग-द्वेषरूप परिणाम करता है। निमित्त करवाता नहीं है, बल्कि जीव निमित्त पर लक्ष्य करके स्वयं उसरूप परिणमित होता है।''
यहाँ पारिणाणिक भाव को छोड़कर शेष उक्त चार भावों का कर्त्ता जीव को व्यवहारनय से कहा गया है, पारिणामिक भाव निरुपाधिक है, कर्म निर्पेक्ष स्वाभाविक भाव है, उसे कर्म के उदय, उपशम क्षय क्षयोपशम आदि की अपेक्षा नहीं है, वह अनादि-अनन्त है, शेष चारों भाव कर्म सापेक्ष हैं, क्षायिक भाव में भी कर्म के अभाव की अपेक्षा है अतः वह कर्म सापेक्ष ही है।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १५०, दिनांक २१-३-५२ पृष्ठ-११९६