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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
इसप्रकार जीव द्वारा किये बिना ही पुद्गल स्वयं कर्मरूप से परिणमित होते हैं।'
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कवि हीरानन्दजी इस गाथा के भाव पद्य में प्रस्तुत करते हैं ह्र (दोहा)
निज सुभाव आतम करै, पुग्गल सहज सुभाव। करमभाव करि परिनवै एकै खेत रहाव ।। ३१० ।। ( सवैया इकतीसा )
संसारी अवस्था मैं जीव चेतना बिहारी,
आदि अन्त बिना, मोह-राग-दोष भरया है । चीकनै असुद्ध भाव, जाही समै करै जीव,
ताही समय कर्त्ता है लोकभाव धर्या है ।। ताही कौ निमित्त मानि जीव परदेस विसै,
कर्मपुंज लगे गाढ़ एक भाव कर्या है। अपने सुभाव न्यारै एकभाव धारै लसे,
स्याद्वाद वाणी हीतैं जीवलोकतर्या है ।। ३११ ।। ( दोहा )
निचै करि जो देखिये, वस्तु सरब निज रूप । पर स्वरूप धारक नहीं, पैविवहार अनूप ।। ३१२ ।। उक्त काव्यों में कवि का कहना है कि ह्र आत्मा और पुद्गल दोनों एक ही क्षेत्र में रहकर अपने-अपने स्वभाव में रहते हैं । पुद्गल करम अपने जड़ भाव से परिणमन करते हैं तथा आत्मा अपने ज्ञानभाव से परिणमता है।
आगे सवैया में कवि कहते हैं कि ह्न संसारी अवस्था में चेतना विहारी जीव अनादि से मोह-राग-द्वेष से भरा है। जब जीव रागादि
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जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
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अशुद्ध भाव करता है, उसी समय पर का कर्त्ता बनकर संसारी भाव को धारण करता है। उस कर्तृत्वभाव का निमित्त पाकर जीव को कर्मबंध होता है तथा जीव जब अपने स्वभाव को धारण करता है, तब स्याद्वादवाणी के आश्रय से तर जाता है। निश्चय से देखें तो वस्तु अपने स्वरूप ही है, पर रूप का धारक नहीं है; किन्तु व्यवहार से संसारावस्था में मोहीरागी -द्वेषी है।
इस संदर्भ में गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “आत्मा संसार अवस्था में अनादिकाल से परद्रव्य के निमित्त से मिथ्यात्व रागादि भावों रूप परिणम रहा है। आत्मा पर से जुदा हैं ह्न ऐसा भान किए बिना अशुद्ध भाव रूप से परिणमता है। आत्मा स्वभाव से तो अरूपी शुद्ध चैतन्य स्वभावी हैं तथा संसार अवस्था में कर्म संयुक्त रूपी एवं जड़स्वभावी हैं।
यद्यपि जीव व कर्म दोनों भिन्न-भिन्न हैं; परन्तु शरीर, कर्म और कुटुम्ब मेरे हैं ह्र ऐसे मिथ्यात्व के कारण अपने चैतन्य स्वभाव से चूकने की भूल से एवं पर के लक्ष्य से स्त्री- पुत्र-कर्म व जड़ शरीर मेरा है एवं मैं उनका हूँ ह्र ऐसे अज्ञानभाव से जीव मोह-राग-द्वेष रूप परिणमता है।
आत्मा स्वभाव से जड़ कर्म, जड़ शरीर एवं चिद्विकार से जुदा है ह्र अबतक ऐसा भेद नहीं किया। अनादिकाल से निगोद से लेकर सब संसारी जीव स्वयं के कारण जब विभावरूप परिणमन करते हैं और कर्म भी स्वयं के कारण स्वतंत्रपने बंधते हैं, क्योंकि ज्ञानी ज्ञानभाव का कर्ता है। तथा अज्ञानी अपने अज्ञान भाव कर्त्ता है न! इस तरह जड़ व चेतन की दोनों क्रियायें स्वतंत्र हैं । "
१. सद्गुरु प्रवचन प्रसाद दि. २५-३-५२, पृष्ठ १२४१ का भावार्थ ।