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पञ्चास्तिकाय परिशीलन स्वयं ही कर्ता है। (२) पुद्गल स्वयं ही द्रव्यकर्म रूप परिणमित होने की शक्ति वाला होने से वह स्वयं ही करण है। (३) पुद्गल द्रव्य कर्मों को प्राप्त करता होने से वह ही कर्म है। (४) अपने में से पूर्व परिणाम का व्यय करके द्रव्य कर्मरूप परिणाम करता होने तथा पुद्गल द्रव्य ध्रुव रहने से पुद्गल स्वयं ही अपादान है। (५) अपने को द्रव्यकर्म रूप परिणाम देता होने से पुद्गल स्वयं ही सम्प्रदान है। (६) अपने आधार से द्रव्यकर्म कर्ता होने से पुद्गल स्वयं ही अधिकरण है।
इसीप्रकार (१) जीव स्वतंत्ररूप से जीवभाव को करता होने से जीव स्वयं ही कर्ता है; (२) स्वयं जीवभावरूप से परिणमित होने की शक्तिवाला जीव स्वयं ही करण है; (३) जीवभाव को प्राप्त करता होने से जीवभाव कर्म है; (४) अपने को जीवभाव देता होने से जीव स्वयं ही सम्प्रदान है; (५) अपने में से पूर्व भाव का व्यय करके (नवीन) जीवभाव करता होने से और जीवद्रव्यरूप से ध्रुव रहने से जीव स्वयं ही अपादान है; (६) अपने में अर्थात् अपने आधार से जीवभाव करता होने से जीव स्वयं ही अधिकरण है।
इसप्रकार, पुद्गल की कर्मोदयादिरूप से या कर्मबंधादिरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में पुद्गल ही स्वयमेव छह कारकरूप से वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है तथा जीव की
औदयिकादि भावरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में जीव स्वयं ही छह कारकरूप से वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है। पुद्गल की और जीव की उपर्युक्त क्रियाएँ एक ही काल में वर्तती हैं तथापि पौद्गलिक क्रिया में वर्तते हुए पुद्गल के छह कारक जीवकारकों से बिल्कल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तव में किसी द्रव्य के कारकों को किसी अन्य द्रव्य के कारकों की अपेक्षा नहीं होती।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
___२३३ कवि हीरानन्दजी इसी बात को इस प्रकार कहते हैं :ह्न
(दोहा) करम करै निजभाव कौं, निज सुवाभाव करि लीन । तैसैं जीव सदा लसै, निज सुभाव परवीन ।।३०१ ।। निहचै नै कारक छहौं वस्तु अभेद बखान । जो यह जानै भेद सब सो नर सम्यक्वान ।।३०२ ।।
(सवैया इकतीसा ) कर्मरूप पुद्गल है सोई करताररूप,
पावने कौ जोगि परिनाम रूप कर्म है। कर्मरूप पाइवे की सक्तिरूप करन है,
कर्मरूप आश्रय का सम्प्रदान धर्म है। एकरूप नासभयै आप ध्रौव्य अपादान,
आश्रय मान रूप का आधारत्व पर्म है। एई छहों कारक सौं कर्म परिनाम लस, निहचै अभेद अंग कर्मरूप सर्म है।।३०३ ।।
(दोहा) करम करमकौं जो करै, अरु अपनैकौं आप।
कैसैं फल आतम लहै, करम देइ फल-ताप ।।३०४ ।। उक्त पद्यों में कहा है कि ह्न जिसप्रकार कर्म निजस्वभाव में लीन रहकर निज भाव के ही कर्ता हैं, उसीप्रकार जीव भी सदैव अपने स्वभाव में ही सुशोभित होते हैं। जो व्यक्ति इस रहस्य को जानते हैं, वे ही सम्यक्त्व के धारी ज्ञानी हैं।
कवि ने सवैया इकतीसा में षट्कारकों का स्वरूप कहा है। अन्तिम दो पंक्तियों में वे कहते हैं कि ह इन ही षटकारकों से कर्म का परिणमन सोभनीक है, जो कि निश्चय से एक अभेदरूप ही है।
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