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पञ्चास्तिकाय परिशीलन कवि हीरानन्दजी उक्त कथन को अपनी भाषा में कहते हैं ह्र
(दोहा) भाव करमते होत है, करम भाव होइ । लोकि सही करता नहीं, करता बिना न कोई ।।२९५ ।।
(सवैया इकतीसा) विवहार नय देखै कारन है दर्व कर्म
रूप तातै जीवभाव हेतु दर्वकर्म मान्या है। नवा कर्मबन्धन है जीवभाव कारण तैं,
तारौं दर्वकर्म हेतु जीव भाव जान्या है ।। निहचै सरूप कोई करता काहू का नाहिं,
वस्तु का सरूप वस्तु माहिं पहिचान्या है। जीवभाव जीव करै दर्वकर्म कर्म बरै, ग्याता सुद्ध रूप जानि मिथ्या मोह भान्या है।।२९६ ।।
(दोहा) भाव करै सब दरब कौं, दरब करै सब भाव ।
निमित्त नैमित्तिक भाव तैं, सोहे सकल कहाव ।।२९७ ।। व्यवहारनय से देखें तो भावकर्मों के बंधन में द्रव्यकर्म कारण हैं तथा नये द्रव्य कर्मबंधन में जीवभाव अर्थात् भावकर्म कारण है। इसलिए द्रव्यकर्म का हेतु भावकर्म को माना है।
निश्चय से देखें तब तो कोई किसी का कर्ता नहीं है, वस्तु का स्वरूप स्वयं वस्तु से हैं।
जीव का भाव जीव स्वयं कर्ता है और उनका निमित्त पाकर द्रव्यकर्म स्वयं अपनी योग्यता से बंधते हैं। ज्ञाता ने ऐसा शुद्ध स्वरूप समझकर मिथ्यात्व का नाश किया है।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
२२७ कवि २९७वें दोहे में कहते हैं कि ह्न भावकर्मों से द्रव्यकर्म तथा द्रव्यकर्मों से भावकर्म बंधते हैं। दो द्रव्यों में ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। ___ गुरुदेवश्री कानजीस्वामी उक्त गाथा के भावार्थ को इसप्रकार व्यक्त करते हैं कि ह निश्चय से जीवद्रव्य अपने भावकर्म-रागद्वेष विकार अथवा अविकारी चेतन भावों का कर्ता है तथा पुद्गलद्रव्य निश्चय से अपने द्रव्य कर्मरूप अवस्था का कर्ता है।
व्यवहारनय की अपेक्षा से देखें तो जीव द्रव्यकर्म की अवस्था का कर्ता है तथा द्रव्यकर्म जीव के विभाव भाव का कर्ता है। यहाँ जो व्यवहार से कर्ता कहा, वह निमित्त बताने के लिए कहा है। जीव जब रागद्वेष करता है तब रागद्वेष का निमित्त पाकर पुद्गल कर्म वहाँ स्वयं बंधते हैं ह्र ऐसा बताने के लिए यह कहा है कि ह्र जीव ने कर्म बाँधे हैं तथा जब जीव राग-द्वेष करता है तब कर्म का उदय होता है ह्र यह बताने के लिए ऐसा कहा है कि ह्न कर्म के उदय से जीव में विभाव हुआ। कर्म में आत्मा के राग को निमित्त तथा आत्मा के राग में कर्म का निमित्त बताने के लिए ऐसा कथन किया है।"
इसप्रकार उपादान-निमित्त कारण के भेद से जीव का कार्य व कर्मों का कार्य निश्चयनय व व्यवहारनय द्वारा होता है।
जीव राग करता है यह कथन निश्चय का है और जीव भाषा बोलता हैं' ह्र यह कथन व्यवहारनय का है। भाषा की पर्याय पुद्गल से होती हैं' ह्र यह निश्चय वचन है तथा भाषा से ज्ञान होता है' यह व्यवहार वचन है। 'स्वयं से ज्ञान होता है' ह्न यह निश्चय है। एक दूसरे से एक दूसरे में कार्य होता है' ह्न ऐसा मानना अज्ञान है।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १५२, गाथा-६०, दिनांक २३-३-५२ पृष्ठ-१२१६