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गाथा-५९ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र कर्म बिना जीव के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम भाव नहीं होते। इसलिए ये चारों भाव कर्मकृत हैं, कर्म निमित्तक हैं।
अब इस गाथा में यह कहते हैं कि ह निश्चय से आत्मा तो अपने भाव को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता । मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
भावोजदिकम्म कदो, अत्ता कम्मस्स होदि किधकत्ता। ण कुणदि अत्ता किंचि वि, मुत्ता अण्णं सगं भाव।।५९।।
(हरिगीत) यदि कर्मकृत हैं जीव भाव तो कर्म ठहरे जीव कृत। पर जीव तो कर्ता नहीं निज छोड़ किसी पर भाव का।।५९||
यदि जीव के भावकर्म द्रव्यकर्मकृत हों तो आत्मा भी द्रव्यकर्म का कर्ता ठहरे, जो संभव नहीं है; क्योंकि आत्मा तो अपने भाव को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में पूर्वपक्ष उपस्थित करते हुए कहते हैं कि - “यदि औदयिक आदि जीव के भाव द्रव्यकर्म द्वारा किये जाते हों तो जीव उसका (औदयिक आदि रूप भावों का) कर्त्ता नहीं है ह्र ऐसा सिद्ध होता है और जीव का अकर्तृत्व तो इष्ट (मान्य) है नहीं; इसलिए जीव द्रव्यकर्म का कर्ता होना चाहिए; किन्तु ऐसा तो हो नहीं सकता; क्योंकि निश्चयनय से आत्मा अपने भावों को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता।" इसी बात को कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्र
(दोहा) करम करै जो भावकर्म कौ तौ जीव न करतार । निजस्वभाव तजि और कछु, जीवनकरैत्रिकार (ल)।।२९२।।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा ५९)
(सवैया इकतीसा) औदयिक आदि जीव के स्वभाव है,
जौ तौ दरब कर्म रूप इनका करैया है। तौ तौ भाव कर्म का करता जीव नाहि सूझी,
भाव का अकरतार लोक का फिरैया है।। ऐसी सो बने नाहिं, भाव कर्म दुरै जाँहि,
तातै अपने भावौं का आप मैं बरैया है। दर्वकर्म कौन कहौ और याको करै कौन, आनकर्ता जीव पूछ पक्ष का धरैया है।।२९३ ।।
(दोहा) गुरु कौ पूछे शिष्य इक, मिथ्यातमकरि वौन ।
भाव करम यह जीव का दरब करम कही कौन? ॥२९४।। उक्त काव्यों का सार यह है कि यदि द्रव्यकर्म ही भाव कर्मों के कर्ता है तो जीव के भावों को द्रव्यकर्म का कर्ता होना चाहिए, जबकि जीव तो अपने भाव के सिवाय अन्य किसी का कर्ता है ही नहीं।
औदयिक आदि भावों को जो जीव का कर्तृत्व कहा सो उन भावों का कर्ता तो पुद्गल द्रव्य कर्म है।
यदि भावकर्म का कर्ता जीव नहीं है तो भावकर्म का अकर्ता जीव लोक में परिभ्रमण क्यों करेगा? नहीं करेगा। इसलिए जब तक जीव संसार में राग-द्वेषमय है, तब तक उसे भाव कर्मों का कर्त्ता मानना उचित ही है।
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “यदि सर्वथा प्रकार से द्रव्यकर्मों को भावकर्मों का कर्ता माना तो जीव भाव कर्म का कर्ता कैसे ठहरेगा? तात्पर्य यह है कि ह्र द्रव्यकर्मों को भावकर्मों का सर्वथा कर्ता माना जावे तो आत्मा भाव कर्मों का अकर्ता हो जायेगा तथा जड़कर्म के कारण विकार होगा तथा जड़ कर्म नष्ट हो तो धर्म हो ह ऐसी कर्मों की अधीनता होगी तथा द्रव्य कर्म में निमित्त कौन होगा? इसलिए कर्म के
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