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पञ्चास्तिकाय परिशीलन चक्षुदर्शन ह्न चक्षुदर्शन का उपयोग अपनी सत्ता में रहकर होता है, परन्तु हीन परिणमन होने से इसमें चक्षुइन्द्रिय निमित्त है। वस्तुतः जीव चक्षुदर्शन से देखता नहीं है। चक्षुदर्शन का व्यापार जीव स्वतंत्ररूप से अपने अस्तिकाय में करता है। जीव द्रव्य है, दर्शन गुण है और चक्षुदर्शन पर्याय है ह्र इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय होकर जीवास्तिकाय का स्वरूप पूरा होता है।
दर्शनोपयोग का कार्य सामान्य अर्थात् भेद किए बिना देखना है। एक ज्ञान का व्यापार होने के पश्चात् और दूसरे ज्ञान का व्यापार होने के पूर्व चेतना का जो सामान्य व्यापार होता है, जिसमें चक्षुनिमित्त है, उस व्यापार को चक्षुदर्शन का व्यापार कहते हैं। छद्मस्थ जीव को दर्शनोपयोग के समय ज्ञानोपयोग नहीं होता और ज्ञानोपयोग के समय दर्शनोपयोग नहीं होता। एक के बाद एक होता है। केवली भगवान को दोनों उपयोग एक साथ होते हैं।
अचक्षुदर्शन चक्षु के अलावा चार इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थों का सामान्यावलोकन होना अचक्षुदर्शन है।
अवधिदर्शन ह्न अवधिज्ञान होने के पूर्व स्वर्ग नरकादि का भेद किए बिना आत्मा से सीधा देखना अवधिदर्शन है। ___ केवलदर्शन ह्र अनन्त पदार्थों का भेद किए बिना सामान्य प्रकार से देखना केवलदर्शन है। केवली भगवान के केवलदर्शन और केवलज्ञान एकसाथ ही होता है।"
उक्त कथन का संक्षिप्त सार यह है कि ह्र वस्तुतः चक्षुदर्शन पर्याय आत्मा के दर्शन गुण की है, वह पुद्गल की पर्याय नहीं है, पुदगल के कारण भी नहीं हुई है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य-गुण व पर्यायें पूर्ण स्वतंत्र हैं।
गाथा-४३ विगत गाथा में दर्शनोपयोग के भेदों के नाम एवं उनके स्वरूप का कथन किया गया है। ____ अब प्रस्तुत गाथा में यद्यपि आत्मा एवं ज्ञान की सहेतुक अपृथकता बताई है, दोनों के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव एक ही अस्तित्वमय रचित होने से भी दोनों को एक सिद्ध किया है; तथापि अनन्त सहवर्ती गुणों एवं क्रमवर्ती पर्यायों का आधार होने के कारण अनन्त रूपा होने से आत्मद्रव्य व ज्ञान को विश्वरूप (अनेकरूप) भी कहा है। अनेक भेद रूप होने का भी जीव का स्वतः सिद्ध स्वभाव है।
मूलगाथा इस प्रकार है ह्र ण वियप्पदिणाणादो णाणी णाणाणि होति णेगाणि। तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियं त्ति णाणीहि।।४३।।
(हरिगीत) ज्ञान से नहिं भिन्न ज्ञानी, तदपि ज्ञान अनेक हैं। ज्ञान की अनेकता से जीव विश्व स्वरूप हैं ।।४३||
यद्यपि ज्ञान और ज्ञानी में कोई भेद नहीं हैं, दोनों अभेद हैं; क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से गुण-गुणी एक हैं, तथापि ज्ञान के अनेकभेद भी हैं, इसी कारण तो आचार्यों ने जीव द्रव्य को भी अनेक रूप कहा है। ___आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र प्रथम तो ज्ञानी (आत्मा) ज्ञान से पृथक् नहीं है; क्योंकि दोनों एक अस्तित्व से ही रचित होने से दोनों को एक द्रव्यपना है। दोनों के अभिन्न प्रदेश होने से दोनों को एक क्षेत्रपना है, दोनों एक ही समय रचे जाते हैं, अतः दोनों में एक कालपना है तथा दोनों का स्वभाव एक होने से दोनों में एकभावपना है।
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१.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३६, पृष्ठ १०७१, दिनांक ६-३-५२