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पञ्चास्तिकाय परिशीलन आत्मा ज्ञान से अपृथक् होने पर भी उसमें मति, श्रुत आदि अनेक भेदरूप ज्ञान होने में विरोध नहीं है; क्योंकि आत्म द्रव्य भी तो अनेक रूप है, विश्वरूप है।
द्रव्य को अनेक सहवर्ती गुणों एवं क्रमवर्ती पर्यायों का आधार होने के कारण एक होने पर भी अनेकरूप (विश्वरूप) कहा जाता है। इस कारण आत्मा को अनेक ज्ञानात्मक होने में विरोध नहीं है।
आचार्य जयसेन ने इस गाथा में आचार्य अमृतचन्द का ही अनुशरण किया है, विशेष यह है कि ह्र आत्मा का ज्ञानादि गुणों के साथ संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद होने पर भी निश्चयनय से प्रदेश अभिन्नता है तथा गति आदि अनेक ज्ञानपना स्थापित किया गया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से गुण-गुणी एक हैं। इसप्रकार अभेदनय से एकता जानना। इस सम्बन्ध में कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्र
(सवैया ) ग्यानी जीव द्रव्य कह्या ग्यान गुन तामैं लगा,
गुण-गुनी भेद तातै एकवस्तु नाही है। दोनों मांहि अस्ति एक तातै एक द्रव्यपना,
दोनों तो अभिन्न एक खेत पर छाहीं है ।। दोनों एक समैवर्ती ता” एक काल लसै,
दोनों के सुभाव एक; एक भावता ही है। द्रव्य विश्वरूप एक, गुण हैं अनेक तामैं; वस्तु स्याद्वाद सधै, एकान्त रूपा नाहीं है ।।२२५।।
(दोहा) एक कहत बनती नहीं, नहीं अनेक की ठौर । अनेकान्तमय वस्तु है सिवमारग की दौर ।।२२६।।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
१७१ जीव द्रव्य है, ज्ञान उसमें गुण है। इस तरह द्रव्य में गुण-गुणी भेद है। आत्मा में सर्वथा एकपना नहीं है।
यद्यपि दोनों में अस्तिपना एक है अर्थात् दोनों का अस्तित्व एक है इसकारण द्रव्यपना एक है, दोनों अभिन्न है, दोनों का द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं स्वभाव एक है। इसप्रकार जीवद्रव्य एक होकर भी गुणों की अपेक्षा अनेक हैं। अतः स्याद्वाद के कथन से कहें तो वस्तु एक होकर भी अनेक हैं और अनेक होकर भी एक है।
वस्तु को एक कहते भी नहीं बनता; क्योंकि वस्तु गुणभेद से अनेक भी है और अनेक कहते भी नहीं बनता; क्योंकि स्वचतुष्टय आदि की अपेक्षा से वस्तु एक है। अतः वस्तु को अनेकान्तरूप कहना ही ठीक है, ऐसी श्रद्धा और स्वीकृति ही मुक्ति का मार्ग है।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी उक्त बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि ह्र “आत्मवस्तु ज्ञान गुण से पृथक् नहीं है। आत्मा के असंख्य प्रदेशों में ज्ञानगुण व्याप्त होकर रहता है। निमित्त के रूप में यद्यपि अन्य द्रव्य होते हैं; परन्तु उन निमित्तों के कारण वस्तु में फेर-फार नहीं होता। परमार्थ से गुण-गुणी में भेद नहीं है; क्योंकि द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव से गुण-गुणी एक हैं। वस्तुतः कर्म के क्षयोपशम के कारण भी ज्ञान नहीं होता। अपने ज्ञानस्वभाव से ज्ञान होता है, निमित्त पर द्रव्य है, अतः निमित्तों का वस्तु में अभाव है।
निमित्तों का, स्वतंत्रपर्याय का एवं अभेद स्वभाव का यथार्थ ज्ञान होने पर एक द्रव्य ही उपादेय है ह्र ऐसी बुद्धि होना ही ज्ञान का फल है।
कर्मादि पर पदार्थों के निमित्तरूप अस्तित्व को ही न माने तो ज्ञान खोटा है; क्योंकि कर्मादि निमित्तों का अस्तित्व है तथा कर्मादि निमित्तों को कार्य का कर्ता मानें तो श्रद्धान खोटा है; क्योंकि कार्य पर के कारण नहीं, बल्कि स्वयं की तत्समय की उपादानगत योग्यता से होता है।
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१. भावपन