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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
(दोहा) जड़ अन्यत परकार है, तरु अन्यत परकार ।
सो सब जिनवानी विषै, जथासरूप निहार ।।२५० ।। उक्त पद्यों में कवि हीरानन्दजी का कहना है कि जैसे धनपति और ज्ञानी ह्र दोनों भिन्न-भिन्न अस्तित्व वाले हैं, भिन्न-भिन्न संस्थान वाले हैं, भिन्न-भिन्न संख्या वाले हैं तथा भिन्न-भिन्न विषय वाले हैं। दोनों के प्रदेश भी भिन्न-भिन्न हैं, इसके विपरीत ज्ञान और जीव में एक ही अस्ति, एक ही संस्थान, एक ही संख्या और एक ही विषय है। इसप्रकार ज्ञान व ज्ञानी का सारा कथन एकरूप है तथा धन और धनपति दोनों का सारा कथन भिन्न रूप है। धन व धनी में प्रदेश भेद हैं, जबकि ज्ञान व ज्ञानी में प्रदेश नहीं है। ___ इस विषय में गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “धन के सम्बन्ध से पुरुष को धनी कहते हैं, परन्तु धन व पुरुष जुदे हैं, दोनों एक नहीं होते। दोनों के आस्तिकाय जुदे हैं। कर्म के कारण आत्मा कर्मी, शरीर के कारण आत्मा शरीरी, प्राणों के कारण आत्मा प्राणी कहा जाता है; परन्तु कर्म, शरीर तथा प्राण से आत्मा का अस्तिकाय जुदा है। दोनों के बीच अभाव की मोटी बज्रशिला है, एक के कारण दूसरा नहीं है। धन चला जाता है, किन्तु पुरुष रहता है। कर्म व शरीर अलग पड़े रह जाते हैं
और सिद्ध का आत्मा मोक्ष में अलग रहता है। यदि वे एक अस्तिकाय हों तो कोई जुदा नहीं पड़ना चाहिए। इसलिए ह्र कर्म से कर्म वाला वगैरह कहना व्यवहार की अपेक्षा है। वास्तव में ऐसा नहीं है; क्योंकि वे सब परपदार्थ हैं। कर्म आदि के प्रदेशों और आत्मा के प्रदेशों में भिन्नता है। __चैतन्य गुण से आत्मा को ज्ञानी कहते हैं; क्योंकि ज्ञान व आत्मा में प्रदेश भेद रहित एकता है। आत्मा ज्ञान के कारण ज्ञानी कहा जाता है।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
१८७ आत्मा केवलज्ञान के कारण केवली, धर्म के कारण धर्मी, इसीतरह सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र के कारण सम्यक्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी एवं सम्यक्चारित्रवान कहलाता है। इनके द्रव्यगुणों में प्रदेश भेद नहीं है।
जैसे कोई व्यवहार में धन के कारण धनी कहा जाता है, पर धन व धनी में प्रदेश भिन्नता है ह्न धन व धनी भिन्न-भिन्न द्रव्य है। धन व धनी में ज्ञान-ज्ञानी की आत्मा अभेद नहीं है, क्योंकि ज्ञान व ज्ञानी में प्रदेश भेद नहीं है और धन व धनी भिन्न-भिन्न दो द्रव्य हैं।
इन दो प्रकार के कथन द्वारा वस्तुस्वरूप के जाननेवाले पुरुष प्रदेश भेदवाले सम्बन्ध को पृथकत्व कहते हैं और प्रदेशों की एकता के सम्बन्ध को एकत्व कहते हैं।" ___ तात्पर्य यह है कि ह्र व्यवहार दो प्रकार का है एक ह्र पृथकत्व व्यवहार, दूसरा ह्न एकत्व व्यवहार । जहाँ दो द्रव्यों के साथ एकता बताई जाय वहाँ पृथकत्व व्यवहार है तथा जहाँ एक वस्तु में गुण भेद बताये जायें वहाँ एकत्व व्यवहार है। जैसे ह्र ज्ञान से ज्ञानी, धर्म से धर्मी कहना ह्र यह एकत्व व्यवहार है। तथा धन से धनी कहना - यह पृथकत्व का व्यवहार है।
इसप्रकार इस गाथा में यह कहा है कि धन व ज्ञान से आत्मा धनी व ज्ञानी कहा जाता है। यहाँ धन व धनी पृथकत्व का लक्षण है तथा ज्ञान व ज्ञानी एकत्व का लक्षण है।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४४, पृष्ठ ११४४, दिनांक १४-३-५२ नोट : पृष्ठ ११३२ भी इस गाथा का उल्लेख है, पुनः १४४ पर भी है।