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पञ्चास्तिकाय परिशीलन टीका में आचार्य अमृतचन्द कहते हैं कि ह्र “द्रव्य व गुण एक अस्तित्व से रचित है। इसलिए उनकी अनादि-अनंत सहवृत्ति ही समवर्तीपना है। समवाय में पदार्थान्तरितपना नहीं है। ह्न यहाँ गुण-गुणी में एक भाव के बिना और किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है। द्रव्य
और गुणों के एक अस्तित्वमय अनादि-अनन्त धारावाही रूप जो प्रवृत्ति है, उसका नाम ही जिनमत में समवाय है।
तात्पर्य यह है कि ह्न मूलतः सम्बन्ध के दो प्रकार हैं; एक संयोग सम्बन्ध और दूसरा ह्र समवाय सम्बन्ध । जैसे ह्र जीव और उनके गुणों का जो सम्बन्ध है, वह तो भावों या गुणों का एक अस्तित्वमय होता है। जैसे ह्र गुण-गुणी में गुणों के नाश होने पर गुणी का नाश और गुणी के नाश होने पर गुणों का नाश हो जाता है। वही प्रदेश भेद रहित गुण-गुणी का सम्बन्ध समवाय सम्बन्ध है। यद्यपि संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादि से गुण-गुणी में भेद है तथापि प्रदेशों की अपेक्षा गुण-गुणी में एकता है।
वही संज्ञा आदि के भेद होने पर भी वस्तुरूप से अभेद होने से अप्रथक्पना है, वही अयुत सिद्धपना है। इसलिए अनादि-अनन्त सहवृत्ति है। द्रव्य व गुणों को ऐसा समवाय होने से उन्हें अयुत सिद्धि है, कभी भी प्रथक्पना नहीं है।" कवि हीरानन्दजी इसी बात को इसप्रकार कहते हैं ह्र
(दोहा) समवरती समवाय है, अप्रथक् नहिं जुदसिद्ध । तारौं दर्वगुनौ विर्षे, अजुतसिद्ध की वृद्धि ।।२६२ ।।
(सवैया इकतीसा ) द्रव्य-गुण एक अस्ति का स्वरूप लसै,
आदि-अंत बिना सोई सहवृत्ति धारै है। समवरती कहावै समवाय जैन ग्रन्थ,
संख्या आदि भेद तातै वस्तु एक सारे हैं।।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ उ७३) दोऊ अप्रथक् भूत जुदी अस्ति कोई नाहिं,
यात अजुत सिद्ध जुतता विडार है। तातें सर्वगण माहिं ए विसेष सगरै हैं, जैनी समकिती जीव नीकै कै विचारे हैं ।।२६३ ।।
(दोहा) समवरती समवाय है, कहत सयाने लोग। ते अयान जानै नहीं, जिन हिय मिथ्या रोग ।।२६४ ।।
जैन सम्यग्दृष्टि ज्ञानी आत्मा भले प्रकार विचारते हैं कि ह्न द्रव्य गुण एक अस्तित्वमय हैं, अनादि-अनन्त सहवृत्ति के धारक हैं। वस्तु में संज्ञा, संख्या भेद होते हुए भी एक है। द्रव्य व गुण दोनों अप्रथक्भूत हैं। इस कारण युत सिद्ध सम्बन्ध उनमें नहीं है।
सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि ह्र समवर्ती, समवाय और अपृथक् तथा अयुतसिद्ध एकार्थ वाचक शब्द हैं; इसलिए अपृथक् द्रव्य व गुण में अयुतसिद्ध सम्बन्ध कह सकते हैं। तथा द्रव्य व गुण एक ही अस्तित्व में रहते हैं। आदि-अंत के बिना सहवृत्ति को धारण किए हैं। जैन ग्रन्थों में समवर्ती को ही समवाय कहा है। संज्ञा, संख्या आदि के भेद होने पर कोई भिन्न वस्तु नहीं है। इसकारण अयुतसिद्ध है। ऐसा जानना । __ अन्यमत में गुण-गुणी को जुदा कहा है। वे कहते हैं कि गुण वाद में आकर आत्मा से मिलते हैं ह्र वे समवाय संबंध का ऐसा स्वरूप मानते हैं कि पहले आत्मा में गुण नहीं थे, आत्मा से गुणों का समवाय सम्बन्ध बाद में हुआ है।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी समवाय के स्वरूप को समझाते हुए कहते हैं कि ह्र “सभी द्रव्यों में समवाय है, द्रव्य व गुणों के एक अस्तित्व के रूप में अनादि-अनन्त धारावाही रूप जो प्रवृत्ति है, जिनमत में उसका नाम समवाय है। वे आत्मा का ही दृष्टान्त देकर बताते हैं कि ह्र आत्मा वस्तु है, उसमें ज्ञान, आनन्द वीर्य, स्वच्छत्व, प्रभुत्व आदि अनन्तगुण
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