________________
२०६
पञ्चास्तिकाय परिशीलन होने पर भी पति के अभाव में कभी सन्तान नहीं होगी, उसीप्रकार के दूरान्दूर भव्य योग्य निमित्तों के अभाव में कभी मुक्त नहीं होंगे ऐसे जीव उनसे भी अनन्तगुणे हैं।
श्रीकानजीस्वामी इस गाथा के स्पष्टीकरण में कहते हैं कि ह्न
(१) आत्मद्रव्य सहजशुद्ध चेतन पारिणामिक भावों से अनादिअनन्त हैं। स्वाभाविक भाव की अपेक्षा जीव तीनों कालों में टंकोत्कीर्ण अविनाशी हैं।
(२) जीव सादि - सान्त भी हैं। उदय, उपशम व क्षयोपशम भावों की अपेक्षा से सादि - सान्त हैं। ये तीनों भाव कर्म की अपेक्षा रखते हैं। समय-समय पर जीव के परिणामों का निमित्त पाकर कर्म बँधते हैं एवं छूटते हैं। उन कर्मों की निमित्तापेक्षा वे परिणाम सादि - सान्त हैं।
(३) क्षायिकभाव सादि अनन्त हैं, पारिणामिकभाव अनादि-अनन्त हैं। सत्ता स्वरूप से जीव द्रव्य अनन्त हैं।
जैसे आत्मा का कोई कर्त्ता नहीं है, उसीप्रकार इन पाँच भावों का भी कोई कर्त्ता नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र में इन्हें 'स्वतत्त्व' कहे हैं। अंत में कहा है कि ह्न विकार रूप होने की जीव की स्वयं की योग्यता है ह्न ऐसा कहकर कर्मों पर से दृष्टि छुड़ाई है तथा अपने स्वभाव पर दृष्टि कराई है। "
इसप्रकार प्रस्तुत गाथा में आगामी तीन गाथाओं का उपघात किया गया है, जिसमें कहा है कि जीवों को सहज चैतन्य लक्षण पारिणामिक भाव से देखें तो वे अनादि-अनन्त हैं तथा उन्हें ही औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावों से देखें तो वे सादि-सान्त हैं एवं क्षायिकभाव से देखें तो वे सादि-अनन्त हैं।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४८, दिनांक १९-३-५२
( 112 )
गाथा - ५४
विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न जीवों को सहज चैतन्य लक्षण पारिणामिक भाव से देखें तो वे अनादि-अनन्त हैं तथा उन्हें ही औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिकभावों से देखें तो वे सादि सान्त हैं एवं उन्हें ही क्षायिकभाव से देखें तो वे सादि अनन्त हैं।
अब प्रस्तुत गाथा में औदयिक आदि भावों के कारण सादि- सान्तपना और अनादि-अनन्तपना होने में जो विरोध प्रतीत होता है उसका परिहार करते हैं। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स हवदि उप्पादो । इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं । । ५४ ।।
(हरिगीत)
इस भाँति सत्-व्यय अर असत् उत्पाद होता जीव के । लगता विरोधाभास सा पर वस्तुतः अवरुद्ध है ॥५४॥ इसप्रकार जीव के सत् का विनाश और असत् का उत्पाद होता है ह्र ऐसा जिनवरों ने कहा है। जो कि अन्योन्य विरुद्ध होकर भी अविरुद्ध है।
आचार्य अमृतचन्द समय व्याख्या टीका में कहते हैं कि ह्न “जीवों को औदयिक आदि भावों के कारण सादि- सान्तपना और अनादिअनन्तपना होने में विरोध नहीं आता; क्योंकि वास्तव में पाँच भाव रूप से स्वयं परिणमित होने वाले जीवों के मनुष्यत्वादि औदयिकभाव की अपेक्षा सत् का विनाश होता ही है और देवत्वादि औदयिकभाव की अपेक्षा ही असत् का उत्पाद भी होता ही है। ऐसा कहने से मूलतः सत् का विनाश भी नहीं और असत् का उत्पाद भी नहीं हुआ।
पूर्वोक्त गाथा १९ में कथन के साथ विरोध-सा प्रतीत होने पर भी