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पञ्चास्तिकाय परिशीलन (३) उसीप्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही मूर्त द्रव्य को विकलरूप से जो आत्मा सामान्यत: अवलोकन करता है, वह अवधिदर्शन है।
(४) समस्त आवरण के अत्यन्त क्षय से जो आत्मा अकेला मूर्तअमूर्त द्रव्य को सकलरूप से सामान्यतः अवबोधन करता है, वह स्वाभाविक केवलदर्शन है।
आचार्य जयसेन कहते हैं कि ह्न 'यह आत्मा निश्चयनय से अनन्त अखंड एक दर्शनस्वभावी होने पर भी व्यवहारनय से कहें तो संसार अवस्था में निर्मल शुद्धात्मानुभूति के अभाव में उपार्जित कर्म द्वारा चक्षुदर्शनावरण का क्षयोपशम होने पर और बहिरंग चक्षुरूप द्रव्येन्द्रिय का अवलम्बन होने पर जो मूर्त वस्तु को निर्विकल्प सत्तावलोकन रूप से देखता है, वह चक्षुदर्शन है।
चक्षु को छोड़कर शेष इन्द्रिय और नो इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर तथा बहिरंग द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन का अवलम्बन होने पर जो मूर्त और अमूर्त वस्तु का निर्विकल्प सत्तावलोकनअचक्षुदर्शन है। अवधिदर्शनावरण का क्षयोपशम होने पर मूर्त वस्तु को निर्विकल्प सत्तावलोकनरूप से आत्मा जो प्रत्यक्ष देखता है, वह अवधिदर्शन है।
रागादि दोषरहित चिदानन्द एक स्वभावी निज शुद्धात्मानुभूति लक्षण निर्विकल्प ध्यान द्वारा सम्पूर्ण केवलदर्शनावरण का क्षय होने पर तीनलोक, तीन कालवर्ती वस्तुओं संबंधी सामान्य सत्ता को एक समय में देखता है, वह केवलदर्शन है।
कविवर हीरानन्दजी ने चारों दर्शनोपयोगों की परिभाषाओं को तीन छन्द में बांधा है, जो इसप्रकार हैं ह्न
(दोहा) चच्छु अचच्छु अवधि लसै, केवलदर्शन चारि। अनिधन अनंतविषयी विमल केवल दरसन धारि ।।२२१।।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
१६७ संसारी जीव के चच्छु अचच्छु एवं अवधिदर्शनावरणी कर्म के क्षयोपशम से जो सामान्य अवलोकन होता है, वह चच्छु अचच्छु एवं अवधिदर्शन है तथा अनिधन अनंत विषय का जो दर्शन होता है वह केवलदर्शन है।
(सवैया ) दरसनावरनी सौं घादित अनादि जीव,
छय उपसम चच्छु इन्द्री करि देखे हैं। चच्छु बिना शेष चार इन्द्री मनसा विचारि,
मूरत-अमूर्तिक दरब को पेखें है ।। पुद्गल परमाणु सीमा देखै सो अवधि,
सारै दरब देखे सो, केवल विसेखै है। तीनों परभाव हेय, पहिलै विनासी हेय,
केवल सुभाव एक उपादेय लेखै है ।।२२२।। संसारी जीव अनादिकाल से दर्शनावरणी कर्म के अन्तर्गत चक्षु दर्शनावरणी कर्म के क्षयोपशम से चक्षु इन्द्रिय के द्वारा देखते हैं, जो देखते हैं वह चक्षुदर्शनावरण कर्म है। चक्षु इन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रिय एवं मन के द्वारा जो मूर्तिक अमूर्तिक द्रव्यों को देखता है वह अचक्षु दर्शनावरण कर्म है। जो पुद्गल परमाणु को सीमा में देखता है, वह अवधिदर्शन है तथा जो सम्पूर्ण द्रव्यों का सामान्य अवलोकन करता है, वह केवलदर्शन है। ___इसी गाथा के प्रवचन में गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि "त्रैकालिक आत्मवस्तु में दर्शनगुण भी त्रिकाल है। वह आत्मा के असंख्यात् प्रदेशों में अखण्ड व्यापक होकर रह रहा है। दर्शन का विषय सामान्य है, वह वस्तु का भेद करके नहीं जानता। उस दर्शनोपयोग की चार पर्यायें हैं। १. चक्षुदर्शन, २. अचक्षुदर्शन, ३. अवधिदर्शन और ४. केवलदर्शन।
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